पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/५८

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परिपाक साहब को वे कमी उस पद पर अतिरित नहीं कर सकते थे जिमसे केवल उन्हीं के वंशज इसलाम के शासक बने । अस्तु, अरयों ने अली (मृ० ७१७) की अव- हेलना कर अबूबकर को खत्लाफा चुना । पुत्री के पति से पत्नी के पिता को अधिक महत्व मिला। फातिमा और अायशा का विरोध चल पड़ा। अली शिष्ट, सुशील, कांवे, व्याख्याता, वीर एवं उदात्त थे। कूटनीति की कुत्सित चालो से उनका मस्तिष्क मुक्त था । मुसलिम संसार में अत्नी मा मुशील वीर उत्पन्न न हुआ। उनमें भक्ति-भावना का पूरा प्रसार था। प्रवाद है कि मुहम्मद साहब ने गुह्य विद्या का प्रकाशन केवल अली से किया था । जो कुछ हो, अली अपनी उदात्त- वृत्तियों के कारण इसलाम का संचालन बहुत दिन तक न कर सके। उनके वध के अनंतर उम्मैया धंश का शासन (सं० ७१८-८०६ ) प्रारंभ हुआ। कुछ ही दिनों के बाद (सं०७३७) करबला के क्षेत्र में उनकी प्यारी संतानो की जो दुर्दशा की गई उसके स्मरण से आज भी चित्त व्याकुल हो जाता है और शीया तो उनके मातम मे छाती पीटकर मर से जाते हैं। उनके विलाप को सुनकर हृदय दहल उठता है और करवत्ता के हत्याकांड को इसलाम का कलंक समझने को विवश हो जाता है । इसलाम के नाम पर जो मुसलमानों में पारस्परिक संग्राम छिड़ गया था उसमें सांख्य का उदय होना अनिवार्य था। इसलाम के लिये मर मिटनेवाले व्यक्तियों की अव भी कमी नहीं थी। हाँ, उनको अपने दल में लाने के लिये अपने पक्ष का समर्थन इसलाम के आधार पर अवश्य करना था। जनता की घोषणा थी कि वह इसलाम का साथ देगी, किसी व्यक्तिविशेष से उसका कुछ संबंध नहीं। अतएव अपने अपने मत के अनुसार इसलाम, ईमान और दीन की व्याख्या अनिवार्य हो गई। इसलाम में नाना संप्रदाय चल पड़े। सुनी और शीग्रा में विरोध ठना । जो तटस्थ रह गए उनको खारिजी की उपाधि मिली। मुसलिम तांडव ने मसीही लास्य को दबाकर जिस श्राव" को जन्म दिया उसमें किसी के स्वरूप का ठीक ठीक पता लगाना दुस्तर काम है । फिर भी आसानी के साथ कहा जा सकता है कि संतमत के योग्य यह परिस्थिति इसी अंश में थी कि इसमें कुछ निर्वेद का उदय हो जाता था। उद्भव के प्रकरण में हम देख चुके हैं