पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/५९

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत में प्राचीन नबियों का काफी हाथ रहता था। इस समय उनका हाथ कहाँ तक अपनी कला दिखाता रहा, इससे हमारा कुछ प्रयोजन नहीं। कारण कि उनका यह काम भक्तों का नहीं, पंडा-पुरोहितों का ही कर्म समझा जायगा । साथ ही हमको इस समय उन महानुभावों का भी मुक्त दर्शन नहीं मिल सकता जो संगीत, मुरा एवं प्रेम का प्रचार करते हैं। मनोविज्ञान की तो यह सामान्य बात है कि संग्राम शांति चाहता है और उत्साह निर्वेद में समाप्त होता है। रण में जो भीषण रक्तपात और करुण और वीभत्स दृश्य सामने आते हैं वे उदार पुरुषों को किसी समाज में नहीं रहने देते, बल्कि उनको संसार से विरक्त कर कही एकांतसेवन के लिये विवश करते हैं। यही कारण है कि हमें जिन त्यागी, संतोषी, उदार और भक्त व्यक्तियों का कुरान में दर्शन होता है उनका भी इस युग में पर्याप्त पता नहीं चलता । इस वाता.. वरण में शांत तपस्वी व्यक्तियों का एकांत दर्शन ही स्वाभाविक है। जिनको संसार की क्षणिक क्षणदा पसंद नहीं उनको यति-मार्ग का अनुसरण करना ही पड़ता है। उम्मैया-वंश का राज्य काम, क्रोध, लोभ अादि का राज्य था। उसे धर्म का उतना ध्यान न था। उसकी पद्धति मुहम्मद साहब से पूर्वको अरब-पद्धति थी। ईरान से उसका विरोध बढ़ता ही गया । अली के प्रतिकूल प्रायशा ने जो योग दिया था, करवत्ता के क्षेत्र में जो हत्याकांड हुए थे उनका घोर दुष्परिणाम इसलाम को बराबर भोगना ही पड़ा। अली के विरोध के कारण उक्त वंश अपने पक्ष में प्रमाण' को गढ़ता और उनके पक्ष के प्रमाणों को नष्ट करता रहा। कुछ दिनों में इसलाम के भीतर इतने भेद उठ खड़े हुए कि उसमें अनेक पंथ चल पड़े। सीरिया में यूनानी दर्शन का प्रचार मसीही मत के आधार पर चल रहा था। ईरान अपनी संस्कृति के फेर में अलग पड़ा था। सिंध में इसलाम का डेरा पड़ गया था। संक्षेप में, इस- लाम में इतने मतों का प्रवेश हो गया था कि उनको एक सूत्र में बाँध रखना अत्यंत कठिन था । वह भी उस समय जब शासक भोग-विलास के दास हो गए थे। (१) तसव्वुफ़ इसलाम, पृ० १२ । (२)डिशन्स आव इसलाम, पृ० ४७ ।