पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/६१

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तसबुफ अथवा सूफीमत कौन कोस सकता था ! राबिया परमात्मा की प्रिय दुलहिन थी ! वह कहती है- "हे नाथ! तारे चमक रहे हैं, लोगों की आँखें मुंद चुकी है, सम्राटों ने अपने द्वार बंद कर लिए हैं. प्रत्येक प्रेमी अपनी प्रिया के साथ एकांत सेवन कर रहा है, और मैं यहाँ अकेनी अापके साथ हैं।" उसका निर्देशा है- "हे नाथ ! मैं आपको द्विधा प्रेम करती हूँ। एक तो यह मेरा स्वार्थ है कि मैं आपके अतिरिक्त किसी अन्य की कामना नहीं करता, दूसरे यह मेरा परमार्थ है कि आप मेरे परदे को मेरो अखिों के मामने से हटा देते हैं ताकि मैं आपका साक्षात्कार कर आपकी मरतिमें निमन है । किसी भी दशा में इसका श्रेय मुझे नहीं मिल सका। यह तो आपकी कृपा-कोर का प्रसाद है।" मुसलिम राविया को मुहम्मद साहब का भय था । उसने उनसे प्रार्थना की-- "हे रसूल ! भला ऐसा कौन प्राणी होगा जिसे आप प्रिय न हो। पर मेरी तो दगा ही कुछ और है। मेरे हृदय में परमेश्वर का इतना प्रसार हो गया है कि उसमें उसके अतिरिक्त किसी अन्य के लिये स्थान ही नहीं है।" प्रेम का पुनीत परिचय, भावना का दिव्य दर्शन, मुहम्मद की मधुर उपेक्षा, कामना का कलित कलोल, वेदना का विपुल विलास आदि सभी गुण राबिया के रोम रोम से प्रेम का आत्तेनाद कर रहे हैं । उसका जीवन परमेश्वर के प्रेम से प्राप्लावित है । सनमुच राबिया माधुर्य-भाव की जीती-जागतो प्रतिमा है। वह इस लोक में रहती और उस लोक का परिचय देती है। मैक्डानल्ड महोदय तो मादन-भाव का सारा श्रेय राबिया, अथवा स्त्री-जाति को ही देना उचित समझते हैं। राबिया के अतिरिक्त बहुत सी अन्य देवियों ने महामिलन के स्वप्न में परम प्रियतम का विरह जगाया और इसलाम के क्रूर शासकों का दर्प देखा । बत्जा के हाथ-पैर काटे गए, पर उसको ३ (१) राबिया दी मिस्टिक, पृ० २७ । (२) ए लिटरेरी हिस्टरी भाव दी एरब्म, पृ० २३४ । १३४। (४) मुसलिम थियोलोजी, १० १७३ ।। " "