पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/६५

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत सरन द्वीप में प्रागंतुक मुसलमानों पर वेकौर (वीर-कोल ) का प्रभाव पड़ रहा था । अरब और भारत के संयोग से सोमरा और बेगर नामक संकर जातियाँ उम्पन्न हो चुकी थीं। संक्षेप में, इसलाम चारों ओर से रस खींच रहा था। भाग्य या दुर्भाग्यवश मामून ( मृ० ८६० ) सा हट्ट और अाग्रही व्यक्ति इस- लाम का शासक बना । मुहम्मद साहब ने मुसलिम संघ एवं साम्नाज्य के विभेद पर ध्यान नहीं दिया था। उनका प्रतिनिधि साम्राज्य तथा संघ दोनों का संचालक था । मामून संसार के उन अधिपतियों में था जो धर्म पर भी शासन करने है। उसने घोषित कर दिया कि कुरान की शाश्वत सत्ता अल्लाह की अनन्यता के प्रतिकूल है। जो लोग उसको नित्य मानेंगे उन्हें दंड भोगना पड़ेगा । मामन को इस घोषणा की प्रेरणा मोता जलियों की ओर से मिली थी। मामून को मतों की मीमांसा पमंद थी। वह नारग्राही और दबंग शासक था। उसके व्यापक और कठोर हस्तक्षेत्र ने इस. लाम को लुब्ध कर दिया। अली के उपासकों को उत्कप मिला। मेहदी और इमाम के विषय में जो विवाद चल रहे थे उनका वर्णन व्यर्थ होगा। यहीं विचारना यह है कि प्रस्तुत परिस्थिति में सूफीमत की दशा क्या थी। सूफीमत के अभ्युत्थान में मारूफ करखी का विशेष हाथ है। उसने तत्त्व-बोध एवं अर्थ-त्याग को तसव्वुफ की उपाधि दी। प्रेम और मधु की उद्भावना की। उसकी दृष्टि में प्रेम व्यक्ति-विशेष की शिक्षा नहीं, परमेश्वर का प्रसाद है। करखी ने न्याग, तन्व एवं प्रेम का उद्बोधन कर सूफीमत के प्रज्ञात्मक रूप का निर्देश किया। उधर सीरिया के अबू मुलैमान दारानी ने हृदय को परमेश्वर की प्रतिमा का आदर्श तथा देहज वस्तुओं को उसका आच्छादक कहा। उसने ज्ञान का गौरव व्याख्या से कहीं अधिक मौन में समझा। उसके विचार में जब किसी पदार्थ के अभाव में जी कलपता है तब आत्मा हँसती है। क्योंकि यही उसका वास्तविक लाभ है। करखी में चिंतन एवं दारानी में तप की प्रधानता है। सचमुच करसी में कतिपय उन नवीन तथ्यों का भान होता है जो आज भी सूफीमत में मान्य हैं और जिनका समाधान इसत्नाम या मुहम्मदी मत नहीं कर सकता। अस्तु,उनको हृदयंगम करने के लिये उन स्रोतों का पता लगाना होगा जो इसलाम को सींच रहे थे। कहना न होगा कि