पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५२ तसन्युफ अथवा सूफीमत अब्बासी शासकों में न तो वह शक्ति रही, न विद्या-प्रेम ही। सच बात तो यह है कि इस समय मुसलिम संघ एवं साम्राज्य नाना प्रकार की दलबंदियों में फंस गया था। न जाने इसलाम के कितने विभाग होते जा रहे थे। इधर सूफी तसव्वुफ की परिभाषा में लगे थे। यदि हद्दाद तसव्वुफ को आत्मशिक्षण मानता है तो तुस्तरी उसको मितभोजन, प्रपत्ति एवं एकांतवास समझता है । नूरी की दृष्टि में तो सत्य के लिये स्वार्थ का सर्वथा परित्याग ही तसव्वुफ है । उसके विचार में निर्लिप्त ही सूफी है । परिभाषाओं के आधिक्य से प्रतीत होता है कि अब सूफीमत का सत्कार हो रहा था और लोग उसका परिचय भी माँगने लगे थे। यजीद के अनंतर सूफीमत का मर्मज्ञ एवं इसलाम का ज्ञाता जुनैद (म० ६६६) हुआ। जुनैद उन व्यक्तियों में है जिनका सम्मान मुल्ला और फकीर दोनों ही करते हैं। हल्लाज (मृ. ६७८) जब यातनाएँ झेल रहा था, जुनैद तब उसक गुरु होकर भी मुक्त था। वह स्वयं कहता था कि हल्लाज और उसके मतों में विभि- नता न थी। हल्लाज के दंड का कारण उसका तर्क अथवा गुह्य विद्या का प्रकाशन था और उसके सम्मान तथा संरक्षा में सहायक उसका प्रमाद किंवा दुराव था । जुनैद अक्सर देखकर काम करता था। गुप्त रूप से तो वह गुह्य विद्या की शिक्षा देता पर बाहर से कर मुसलिम बना रहता था। वह ऊपर से इसलाम के क्रिया-कलापों का प्रचार, पर भीतर भीतर गुप्त तत्त्व का प्रसार करता था। उसकी दृष्टि में तसच्चुफ उम्र होता है । उसके विचार में वही सूफी है जो परमेश्वर में इतना निरत रहता है कि उसके अतिरिक्त किसी अन्य सत्ता का उसे भान ही नहीं होता। जुनैद के गुप्त-विधानों से तसव्वुफ को चाहे जितनी मदद मिली हो पर उसके निबंधों से गजाली को पूरी सहायता मिली। हल्लाज तो जुनैद का शिष्य ही था। जुनैद का मौन व्याख्यान शिष्यों की मनोवृत्तियों को साक्षात्कार के लिये लालायित करता (१)ज. रो० ए० सो० १६०६ ई०, पृ. ३३५-३४७ । (२) स्टडीज़ इन तसव्वुक, पृ० १३२ ।