पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/७३

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तसब्बुफ अथवा सूफीमत अन्य पुरुष का प्रयोग करता था। वह किसी पंथ का प्रवर्तक या किसी मत का आचार्य न था। उसका तसव्वुफ उसकी साधना का फल था, चिता का प्रसव नहीं। वह प्राचीन सूफियों के मार्ग पर चलता और अंतरात्मा की पुकार पर कान रखता था। वह सचमुच भावुक प्रचारक था । उसको कुरान की व्याख्या में अधिक आनंद नहीं मिलता था। वह तो जनता को प्रेम-पाठ पढ़ाता और अल्लाह का भजन बताता था। उसने सूफीमत को जनता में बखेर दिया और लोग उसके संचय में मग्न हुए। सूफीमत ने कर तो सब कुछ लिया, पर उसे इसलाम की सनद न मिली। इस- लाम के कट्टर उपासक उसको रोकने मे तत्पर रहे । परंतु यह रोग ही कुछ और था जो दवा करने से और भी बढ़ता जा रहा था। नरक के अभिशाप से उनका काम नहीं बन पाता था; सूफी भी अपने मत को कुरान-प्रतिपादित अथवा मुहम्मद साहब की थाती कहते थे। मुल्लाओं का दंडबल हृदय के प्रवाह को रोकने में असमर्थ होता जा रहा था। प्रेम के प्रचारक उदात्त सूफियों के सामने किमी दरबारी काजी का जनता की दृष्टि में कुछ भी महत्त्व न रह गया था । जनता प्रेम चाहती थी, हृदय खोजती थी, फतवा से उसे संतोष न था। प्रतिभा समाधान चाहती थी, भेद खोलती थी, नकल (रुदि) और बिला कैफ (विधि) से उसे तृप्ति नहीं मिलती थी । संस्कृतियों के संग्राम में जो मतभेद उठ पड़े थे उनका संघटन अनिवार्य था । तसव्वुफ के लिये इसलाम और इसलाम के लिये तसव्वुफ का विरोध अब हितकर न था । लोग प्रयत्न- शील भी होते तो किसी एक ही पक्ष में फंस कर रह जाते थे। अनुभवी सूफी एवं विचक्षण पंडित तो न जाने कितने हुए पर किसी को तसब्बुफ और इसलाम के समन्वय का यश न मिला। सूफी जनता का मन मोहने में सफल हो रहे थे, उनका संघटन भी हो गया था, उनका साहित्य भी कर रहा था, उनकी पूजा भी चल पड़ी थी, उनके मठ भी बन गए थे; सभी कुछ उनके पक्ष में था तो सही, किंतु उनको प्राणदंड का खटका भी लगा ही रहता था। किसी समय भी जिदीक की उपाधि दे उनकी दुर्गति की जा सकती थी। इसलाम की अवहेलना उनको इष्ट न थी। इसलाम भी तसव्वुफ के बिना दूभर था। सामग्री सब उपलब्ध थी।