पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/७७

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत उससे सर्वथा मुक्त नहीं रह पाते। सूफी समाज तो एक पक्का संघ ही है। उसके कुछ विधि निषेध भी बन गए हैं। समष्टिरूप में वह किताब का पाबंद है। किताबों में इसलाम ने कुरान को पुनीततम माना तो सही; किंतु उसने अन्य आसमानी किताबों की अवहेलना नहीं की। तौरेत, जवुर और इंजील की इसलाम में पूरी प्रतिष्ठा है। मुहम्मद साहब मूसा, दाऊद और मसीह की उक्त पुस्तकों का सम्मान करते थे। उनकी इस उदारता और सदाशयता का प्रभाव अच्छा ही पड़ा। मार्गों की अनेकता देश-काल से सम्बद्ध हो गई। प्रत्येक जाति की अपनी अलग अलग आसमानी किताब मान ली गई । कुरान में इसलाम, ईमान और दीन की मीमांसा न थी। हदीस में 'फिट' की चर्चा थी। 'फित्र' का तात्पर्य कुछ भी रहा हो, उससे हमको मतलब नहीं । सूफियों ने तो इस फित्र पर ही विशेष ध्यान दिया और इंसान को फित्र का प्रेमी ठहराया । मुहम्मद साहब वास्तव में शास्त्रकार या प्राचार्य न थे। उनमें कवि और नबी की प्रतिभा थी । भावावेश में उनके पैगंबरी जीवन का आरंभ हुआ। बाद में उन्हें एक सेना का संचालन करना पड़ा। बस उनके सामने विजय का प्रश्न आया, ज्ञान के उद्बोधन वा स्वतंत्र चितन का कदापि नहीं । परोक्ष के आदेशानुसार वे प्रत्यक्ष के संपादन में लगे थे । संहार, संचालन, संघटन आदि उनके सभी व्यापार काफिरों के ध्वस, मोमिनों की रक्षा और इसलाम के प्रचार के लिये अल्लाह की प्रेरणा से हो रहे थे। किसी तथ्य की मीमांसा से उन्हें कुछ प्रयोजन न था। फलतः उनके उद्गार अव्यवस्थित रह गए । कुरान कामधेनु बनी तो हदीस की पोथी भी कल्पलता (१) दी मुसलिम बीड, पृ० २२ । ( २ ) हदीस है कि प्रत्येक संतान फित्र में पैदा होती है। उसके माता-पिता उसे यहूदा, मसीही या पारसी बना देत है। वास्तव में फित्र का अर्थ सहज या प्रकृति होता है। मुसलमानों की धारणा है कि इसलाम ही सहज और प्राकृत मार्ग है ; अतः फित्र का तात्पर्य इसलाम है । ( दी मुसलिम क्रीट, पृ० ४२, २१४ ) (३) ऐस्पेक्ट्स प्रणव इस्लाम, पृ० १८७ ।