पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/९०

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प्रास्था ज्ञान का उदय हो जाता है और अल्लाह भी झलक दिखा जाता है। सूफी तो मजार, रौजा और दरगाह के पंडा ही ठहरे ; सामान्य मुसलमान भी उनको किसी हज्ज से कम नही समझता और किसी फकीर की दुश्रा या वली की मिन्नत में मस्त रहता है। कहावत ही है जो न करें लकीर सो करे फकीर" । मजार रौजा या दरगाह की प्रतिष्ठा एवं बली की आराधना से जाना जा सकता है कि सूफियों की धारणा प्रेतों के प्रति किस कोटि की हो सकती है। हम यह भली भाँति जानते हैं कि शामियों में पृथिवी के भीतर किस प्रकार शव रखा जाता था और उसके कत्र के जीवन की किस प्रकार रक्षा की जाती थी। किसी भी समाधि पर दीपक की ज्योति व्यर्थ ही नहीं टिमटिमाती, वह तो मौन भाषा में संकेत करता रहती है कि उसके गर्भ में अपार शक्ति का भांडार है । वह तो उसीको दिखाने को लपक रही है। लोग उसी शक्ति के प्रसाद के लिये कितने लालायित होते हैं और जनता उसके दर्शन के लिये कितनी भूखी रहती है; इसका प्रदर्शन तो प्रतिदिन होता ही रहता है। अस्तु, जनता को योंही छोड़ हमें यह देख लेना है कि समाधि में प्राणी पर बीतती क्या जो सूफी उस पर इतना ध्यान देते हैं। कुरान के अवलोकन एवं हदीस के अनुशीलन से अवगत होता है कि इसलाम कब के जीवन का अच्छी तरह कायल है । प्रवाद है कि मुहम्मद साहब ने किसी काफिर की कब्र पर रुककर कहा था कि यह इसमें कष्ट पा रहा है। इसलाम की धारणा है कि मुसलिम कब्र में मुख से सोते और मुशरिक अपना दुखड़ा रोते रहते हैं। मुनकिर और नकीर नामक दो फरिश्ते कब्र में शव से बातचीत करते हैं और काफिर को वहाँ भी डराते रहते हैं। मुहम्मद साहब की दृष्टि में जिस प्रकार पृथिवी से अन्न उत्पन्न होता है उसी प्रकार प्राशी भी कयामत के दिन उसके गर्भ से बाहर निकल पड़ेगा। इस कहने से प्रकट तो यही होता है कि कयामत के दिन निर्णय के समय शरीर तो पुराना ही रहेगा; पर इसलाम इस विषय में एकमत नहीं है । इस मतभेद में पड़ना घोर संकट (१) नोट्स धान मुहम्मेडनीज्म, पृ. ८१ ।