पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/९६

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साधन संघटन से प्रेम नहीं होता। हाँ, केवल भाव-भजन से उसका नाता रह जाता है । तो परिस्थिति में जकात, सौम एवं हज का कुछ भी महत्त्व नहीं रह जाता, सिर्फ सलात से काम निकालना पड़ता है। परंतु सलात भी उसके लिये पर्याप्त नहीं । सलात तो कामकाजियों का विनय किंवा उनके संघटनका एक अलौकिक विधान है जिसमें संघ ही प्रधान है। उसमें भक्तों के हृदय का मुक्त प्रवाह कहाँ ? अच्छा, तो उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि जीवन में जो काम एक बार करना हो ( हज ), वर्ष में जिसका आश्रय एक मास लेना हो रमजान, सौम, रोजा), कुछ हो जाने पर जिसका प्रबंध करना हो ( जकात), दिन में पाँच बेर के लिये जिसका विधान हो ( सलात, नमाज ), वह किसी प्रेमी वा वियोगी के काम का नहीं हो सकता। उससे तो केवल किसी संघ या समुदाय में रहने का नियमभर बंध सकता है । हाँ, किसी हृदय का प्रसार उससे नहीं हो सकता । अस्तु, इसलाम सूफियों की कोमल भावनाओं का श्राश्रय नहीं बन सकता था । वह तो केवल अपने कठोर व्यवसाय में व्यस्त था। उसका प्रधान काम आराधन नहीं, अल्लाह की प्राज्ञा का प्रसार था। उसके साधन उसीके काम के थे जो अल्लाह से अधिक उसकी आज्ञा को महत्त्व देता हो और उपासना को निमित्त मात्र समझता हो । फिर भी इसलाम में उत्पन्न होने के कारण सूफियों को उक्त साधनों में भाव-भजन का निर्वाह दिखाई दिया और वे उनके संपादन में मग्न रहे । इसलाम उक्त साधन-चतुष्टय में हज की विशेष महिमा है। जीवन में बार करने की अनुमति है। जो लोग बार बार हज करने जाते हैं वे इसलाम का पालन नहीं, अपने आर्त चित्त को संतुष्ट करते हैं। प्रवाद' है कि उमर महोदय को उसमें अश्रद्धा हो चली थी। उनकी समझ में संग असवद का चुंबन बुतपरस्ती से मुक्त नहीं। कहते हैं कि अली के समझाने से उन पर काबा का रहस्य खुला । उमर ही नहीं, अन्य लोगों को भी मुहम्मद साहब का यह अनुपम विधान खटकता है । कदाचित् यही कारण है कि हज के पुष्टीकरण में उसको एक (१) स्टडीज इन तसव्वुफ, पृ० १०६ ।