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पृष्ठ:तितली.djvu/१४२

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इंद्रदेव चले गए। अधिकार खो बैठने का जैसे उन्हें कुछ दुख हो रहा था। सम्पत्ति का अधिकार! अब वह धामपुर के कुछ नहीं थे। परिवार से बिगाड़ और सम्पत्ति से भी वंचित! मां की दृष्टि में वह बिगड़े हुए लड़के रह गए। उन्होंने देखा कि सम्मिलितकुटुम्ब के प्रति उनकी जितनी घृणा थी, वह कृत्रिम थी; रामजस, मलिया, राजो और तितली, उनके साथ ही और भी कई अनाथ स्वेच्छा से एक नया कुटुंब बनाकर सुखी हो रहेहैं।

शैला को वाटसन के साथ कछ नवीनता का अनुभव होने लगा। इंद्रदेव के लिए उसके हृदय में जो कुछ परकयित्व था, उसका यहां कहीं नाम नहीं। वह मनोयोगपूर्वक बैंक और अस्पताल तथा पाठशाला की व्यवस्था में लगी। वाट्सन का सहयोग! कितना रमणीय था। शैला के त्याग में जो नीरसता थी, वह वाट्सन को देखकर अब और भी स्पष्ट होने लगी। वह संसार के आकर्षण में जैसे विवश होकर खिंच रही थी। वाट्सन का चुम्बकत्व उसे अभिभूत कर रहा था। अज्ञात रूप से वह जैसे एक हरी-भरी घाटी में पहुंचने पर. आंख खोलते ही. वसंत की प्रफुल्लता, सजीवता और मलय-मारुत, कोकिल का कलरव, सभी का सजीव नृत्य अपने चारों ओर देखने लगी। खेतों की हरियाली में उसके हृदय की हरियाली मिल जाती। वाट्सन के साथ सायंकाल में गंगा के तट पर वह घंटों चुपचाप बिता देती।

वाट्सन का हृदय तब भी बांध से घिरी हुई लम्बी-चौड़ी झील की तरह प्रशांत और स्निग्ध था। उसमें छोटी-छोटी बीचियों का भी कहीं नाम नहीं। अद्भुत! शैला उसमें अपने को भूल जाती। इंद्रदेव, धीरे-धीरे मूल चले थे।

रात की डाक से नंदरानी का एक पत्र शैला को मिला। उसमें लिखा था।—बहूरानी!

तुम दूसरों की सेवा करने के लिए इतनी उत्सुक हो, किंतु अपने घर का भी कुछ ध्यान है? मैं समझती हूं कि तुम्हारे देश में स्वतंत्रता के नाम पर बहुत-सा मिथ्या प्रदर्शन भी होता है। क्या तुम इस वातावरण में उसे भूल नहीं सकी हो? यदि नहीं, तो मैं उसे तुम्हारा सौभाग्य कैसे कहूं? मैं तो जानती हूं कि स्त्री, स्त्री ही रहेगी। कठिन पीड़ा से उव्दिग्न होकर आज का स्त्री-समाज जो करने जा रहा है, वह क्या वास्तविक है? वह तो विद्रोह है सुधार के लिए। इतनी उद्दण्डता ठीक नहीं। तुम इंद्रदेव के स्नेही हृदय में ठेस न पहुंचाओगी। ऐसा तो मुझे विश्वास है। पर जब से वह धामपुर से लौट आए हैं, उदास रहते हैं। कारण क्या है, तुम कुछ सोचने का कष्ट करोगी?

हां, एक बात और है। तुम्हारी सास अपनी अंतिम सांसों को गिन रही है। क्या तुम एक बार इंद्रदेव के साथ उनके पास न जा सकोगी?

तुम्हारी स्नेहमयी

नंदरानी

दूसरे दिन बड़े सवेरे—जब पूर्व दिशा की लाली को थोड़े-से काले बादल ढक रहे थे, गंगा में से निकलती हुई भाप पर थोड़ा-थोड़ा सुनहरा रंग चढ़ रहा था, तब-शैला चुपचाप उस दृश्य को देखती हुई मन-ही-मन कह उठी—नहीं, अब साफ-साफ हो जाना चाहिए। कहीं यह मेरा भ्रम तो नहीं? मुझे निराधार इस भाप की लता की तरह बिना किसी आलम्बन के इस अनन्त में व्यर्थ प्रयास नहीं ही करना चाहिए। इन दो-एक किरणों से तो काम नहीं चलने का। मुझे चाहिए सम्पूर्ण प्रकाश! मैं कृतज्ञ हूं, इतना ही तो! अब मुझसे क्या मांग है? इंद्रदेव के साथ क्या निभने का नहीं? वह स्वतंत्रता का महत्त्व नहीं समझ