पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१०६

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राजापुर के तुलसीदास १५ उन्होंने भी इतने पर भी वहाँ की रामचरितमानस की प्रति का निर्देश नहीं किया है। एक अवसर पर उन्होंने एक ऐसे संत के विषय में कुछ लिखा है जो स्वतः तुलसीदास का अवतार माना जाता है। साथ ही प्रसंग भी वहाँ 'मानस' का ही है। परंतु फिर भी कहीं इसका कोई संकेत नहीं। जी। आप न जाने किस आधार पर लिखते हैं- सुनहु और गाथा विमल, जेहि विधि रामप्रसाद । हनुमत सौ रामायणहि, पन्यो सहित भहलाद ॥२॥ वाई इक दक्षिण ते आई । रामप्रसाद चरण शिर नाई। कै शंका पूछयो यहि भाँती । लिखी जो सुंदरकांडहि पाती । श्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभुभुज करिकर सम दशकंधर । . इहां वीरता को नहिं खोजू । कौन हेतु कह श्याम सरोजू ! भवन एक अति दीख सुहाचा । हरिमंदिर तहँ भिन्न बनावा । रामनाम अंकित गृह, शोमा वरणि न जाय । नव तुलसी बंद तह, देखि हर्षि कपिराय ॥३॥ रह्यो शपथ रावण को ऐसो । रहै जगत में धर्म न कैसो। लंका मध्य विभीपण मंदिर । राम नाम अंकित किमि सुंदर । कियो युगल शंफा जत्र बाई । रामप्रसादः सके न बताई। संकटग्रस्त रामप्रसाद के उद्धार की कथा पर ध्यान दें। इसी के बाद कहते हैं- फहँ सो चलि आये। संकटमोचन पद शिर नाये। कियो तीनि व्रत हनुमत नेरे । अंतान पवन सुत टेरे। कहहु कवन हित करौ उपासा । रामप्रसाद को सहुलासा । समाधान के शंका : केरो। अबहीं देव बताय निवेरो।