पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१२२

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तुलसी का जन्मस्थान सफल सखियन में सिरोमनि दासतुलसी तुंम रहौं। करौ सेवनं रुचिर रुचि' सौ सुजस की बानी कह्यौ । दास यह तुव अनन्य तापर रीझि चरननं तर परी । अहो तुलसीदास तुम्ह ही कृया फरि अपनी करी ।। ६१ ।। [ब्रजनिधि-ग्रंथावली, पृष्ठ २७५-६ ] 'अनन्य' कवि की इस 'वाणी' का रहस्य तो तब खुले जब हम वस्तुतः 'अनन्य' को जान लें। रचना अनन्य माधव से लगता ऐसा है कि 'अनन्य' 'तुलसी के समकालीन हैं। हम एक ऐसे 'अनन्य' कों जानते हैं जिनका एक पद है- तब ते कहाँ पतित नर रह्यो। जव ते · गुर उपदेस दीन्ही नाम नौका गह्यौ। लोह जैसे परसि पारस नाम कंचन लह्यौ । कस न कसि फसि लेहु स्वामी अज न चाहन चह्यो । उभरि भायौ बिरह बानी मोल महगे कह्यो । , खीर नीर ते भयो न्यारो नर्क ते निबंझौ ।। मूल माखन हाथ आयौ त्यागि सरवर मह्यौ । , अनन्य माधौ दास तुलसी भव जलधि निर्बह्यो ।। [चरित्र, पृष्ठ ९५-६] और इस 'अनन्य माधौ' का सहज परिचय है- निकट रसूलाबाद के, ग्राम कोटरा नाम । जहाँ अनन्य माधौ भए, विदित जासु गुन ग्राम ॥ ६ ॥ [वहीं, पृष्ठ ६४] 'अवध' के इस 'अनन्य माधव' के अतिरिक्त एक दूसरे अक्षर अनन्य 'अनन्य' भी हैं जो साहित्य में 'अक्षर अनन्य के रूप में ख्यात हैं। उनका परिचय है-