पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१२४

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तुलसी का जन्मस्थान महाराज छत्रसाल का उत्तर है- 'दूर करहु द्विविधा दिल सो अरु ब्रह्म स्वरूप को रूप बखानो । जागृति सुति सुषुति हुफो तजि के तुरिया उनको पहिचानो । तीनहूँ श्रेष्ठ कहे सब वेदं सो पूर्व ऋपी हमहू ठहरानो । कारण ज्यों भस्मासुर तारण कामिनि सो प्रभु आप दिखानो ॥शा 'बाद भयो पुरुषोचम सो अरु नेह. बढ़ावन फों उर आनी। ब्रह्म प्रताप ते यो पलट 'तनु ज्या पलंट सब रंग में पानी । जो नर नारि फहै हमको अजहूँ तिनकी मति जाति हिरानी । भूत चुरैल अहें सब झूठ महा हम सौ सुन लीजिए एक ज़बानी सा विवरण से लाभ नहीं, प्रयोजन इतना भर स्फुट कर देने का है कि यदि 'अक्षर अनन्य' को महाराज छत्रसाल का पक्ष भा गया तो गोस्वामी तुलसीदास के प्रति वननिधि का संग्रहः उनकी 'उक्त भावना सिद्ध हुई। अन्यथा उक्त रचना उन जैसे प्राणी से संभव नहीं। जी। रचना किसी भी 'अनन्य' की हो, किंतु हो वह सभी दशाओं में सं० १८६० के पहले की ही, कारण यह कि 'ब्रजनिधि' के निधन का यही समय है और यह पद पाया गया है उन्हीं के हरि-पद-संग्रह' में। अस्तु । जयपुराधीश्वर श्री सवाई प्रतापसिंह जी देव 'बजनिधि' (सं० १८११-सं० १८६०) जी द्वारा संगृहीत इस "अनन्य' कृत पद् के आधार पर हम बिना किसी संकोच के धड़ल्ले से कह सकते हैं कि तुलसी का कोशल देश से गहरा लगाव है । और अपनी समझ में तो- ८