पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१४

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तुलसी-स्तवन जैसे श्री तुलसी की बानी । विसद, विचित्र चित्र पद मंडित भक्ति मुक्ति बरदानी।। लीन्हो वेद पुरान शास्त्र मत मुनि जन ललित कहानी । ज्ञान विराग ब्रह्म मुख जननी फरम धरम नय सानी ॥ उदित भई जा दिन ते जग मैं तब ते बुधन बखानी । अखिल अवनि मंडल परिपूरित को अस जो नहिं जानी ।। प्रगटी राम चरन रति जहँ तह भूरि विमुखता भानी। 'रामगुलाम' सुनत गावत हिय आवत सारंग पानी ॥ X जयति जय जयति तुलसीस बानी। फविन सुखदायनी भाव अंगन भरी छरी भव सूल रस चाव खानी ।। पढ़त जेहि होत नर राममारग निरत लही जग जाचना आस हानी। लोक परलोक सुख देति निज जनन की ताप हरि लेत आनंद खानी ।। पंच ऊपासना भाव चारी भरी खरी सब भांति वेदन पुरानी । अंग मानस लिए सरजू मल भाव हिये दिए जगजीव के अभय जानी ।। कहां लीं कहै फत्रि देखि तेहि बरन छबि रही रस जगत आनंद सानी। 'द्विजवंदन' हिये बसै सफल मान जहां वसै खसै नाहिं फभी यह नेम ठानी।। X X x पदरज श्री तुलसी की पावनि । भवसागर को पोत सुभग भइ सब दोष नसावनि ।। घरन कमल सोमा सुवास जहँ रस अरुनाई भावनि । अमी मूर चूरन जन मन के भव रुज वेगि मिटावनि ॥