पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१४०

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तुलसी का जन्मस्थान १२६ 1 देखत बन-उपवन - सरिता - सर, परम मनोहर ठाउँ । अपनी प्रकृति लिए बोलत हौं, सुरपुर मैं न रहाउँ। ह्याँ के बासी अवलोफत हो, आनंद उर न समाउँ सूरदास जी विधि न सैंकोचे, सौ वैकुंठ न जाउँ ॥१६५।। [सूरसागर, नवम स्कन्ध ] भाव-साम्य का कहना ही क्या ? वह तो आप ही सब कुछ कह रहा है। हाँ, सूरदास के यहाँ इस 'प्रसंग' की गूढता का कोई निर्देश नहीं है । निश्चय ही तुलसी ने यहाँ तुलसी का अवतार कुछ और भी कहने का प्रयत्न किया है। इस 'प्रसंग की व्याख्या में टीकाकारों में जो होड़ लगी है 'मानस-पीयूष' में एकत्र देखी जा सकती है। हम यहाँ उसकी मीमांसा में नहीं पड़ते। हाँ, प्रसंगवश इतना संकेत अवश्य कर देना चाहते हैं कि तुलसी के मतानुसार- निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि । सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ॥२६॥ [ रामचरितमानस, चतुर्थ सोपान ] ऐसी स्थिति में स्वयं तुलसी का अवतार इस काल में कहाँ हुआ होगा ? तुलसी कहते हैं- भाई सों कहत बात कौसिकहि सकुचात, बोल घन घोर से बोलत थोर थोर हैं। सनमुख सबहिं बिलोफत सबहिं नीके, कृपा सों हेरत हँसि तुलसी की भोर है ॥६॥७॥ [गीतावली, वालकांड ] किंतु, यह तो तब' की स्थिति हुई न ? तुलसी के इस जीवन का वृत्त क्या ? सो तलसी का निवेदन है- ६