पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१४३

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तुलसी का जन्मस्थान से पेट नहीं भरा तो समझा कर उसके बाद ही कुछ और भी कहना पड़ा। कहते हैं, और भी लाग के साथ अपनापन दिखा कर कहते हैं बड़े भाव से- नाम महाराज के निवाह नीको कीजै उर, सत्र ही सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं । कीजे राम बार. यहि मेरी ओर चखकोर,. ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं । तुलसी बिलोकि कलिकाल की करालता,, कृपालु को. सुभाव समुझत सकुचात हौं । लोक एक भाँति को, तिलोकनाथ लोकबस, अपनो न सोच, स्वामी सोच ही सुखात हौं ॥१२३।। . [कवितावली, उत्तरकांड ] प्रत्यक्ष है कि तुलसीदास ने एक ओर जहाँ- वानर विभीपन की ओर के फनावड़े हैं का नाम लिया है वहीं दूसरी ओर- कीजै राम वार यहि मेरी ओर चखकोर की माँग की है। कारण कुछ तो होगा ही। और पहले जहाँ स्पष्ट निवेदन किया था- लोक वेद राखिवे को पन रघुबर को वहीं अब यहं गहरी गोंहारं लगी- लोक एक भाँति को, तिलोकनाथ लोकवस, अपनो न सोच, स्वामी सोच ही सुखात हौं । तुलसी को 'स्वामी का इतना ध्यान 'वेद' के.नाते नहीं "लोक के नाते ही है न। और राम से तुलसी का लौकिक

नाता है- तुलसी, तिहारो घरजायउ है घर कों।