पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१४५

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तुलसी का जन्मस्थान १३५ है । और सो भी निरा 'घरजाया' ही नहीं, 'घर' का 'घरजाया' है । कृपा कर समझ रखिए कि यह तुलसी आप का घर का गुलाम नहीं कि कहीं बाहर के. प्राणी को महत्त्व दें और यह चुपचाप सब कुछ देखता और सहता रहे । नहीं । 'घर' का होने के नाते इसका लौकिक दृष्टि से आप पर वह अधिकार है जो किसी भी बाहरी प्राणी का नहीं। अतएव यदि लोकलाज का कुछ भी ध्यान है तो इस पर अविलंब कृपा कीजिए । स्मरण रहे 'घर का गुलाम' मुहावरा विवशता का द्योतक है। कबीर इसी से अपने को 'घर का गुलाम' कहता है, किंतु तुलसी विवश नहीं । वह तो अपना अधिकार चाहता है। फलतः अपने स्वामी से खुलकर कह देता है किस चेतावनी के साथ- राखे रीति.आपनी जो होइ सोई कीजै बलि, तुलसी तिहारो घरजायउ है घर को । करने को तुलसी भी राम की प्रभुता के सामने क्या कर सकता है ? किंतु फिर भी वह अपना अधिकार जमाता है और लोक- रीति से राम का सहज कृपापात्र बन जाना चाहता है। फलतः राम से अनुरोध करता है कि 'बाहर' पर अनुकंपा बहुत हों चुकी । अब कुछ 'घर' पर भी कृपा होनी चाहिए । कारण कि उसका दृढ़ विश्वास है जो- मुनि सुर सुजन समाज के सुधारि काज, बिगरि विगरि जहाँ जहाँ जाकी रही है। पुर. पाउँ धारिहे उधारि, तुलसी हूँ से जन, जिन जानि के गरीबी गाढ़ी गही है ॥ ४ ॥ ४१. ।। , [गीतावली, अयोध्याकांड ]. . .