पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१५५

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. तुलसी की जन्म-दशा भी लेते हुए प्रायः यही विचार प्रतिपादित किया गया है। किंतु इस अर्थ में शंका यह है कि कदाचित् मादा कीड़ा ही मरता होगा; नर नहीं, और यहाँ पर 'मात पिता है' है । दूसरे, 'तनु जन्यों के जो पाठ-भेद मिलते हैं वे इस अर्थ का विरोध करते हैं: सं० १६६६ की एक प्रति में, जिसका परिचय आगे दिया जायगा, 'तनुज सऊ' पाठ मिलता है; और एक अन्य प्राचीन प्रति में, जिसकी तिथि अज्ञात है और जो प्रस्तुत लेखक के संग्रह में है, 'तुचा तजत पाठ है। इनमें से कौन सा पाठ प्रामाणिक है, यह कहना कठिन है, किंतु जब तक वैज्ञानिक रीति से ग्रंथ का पाठ-निर्णय नहीं हो जाता, सं० १६६६ की प्रति का पाठ हम न ग्रहण कर इधर की प्रतियों का पाठ ग्रहण करें, इस बात का पर्याप्त कारण नहीं दिखाई पड़ता और इस पाठ को लेने पर 'कुटीला' आशय की संगति नहीं बैठती; उससे तो 'कुटिल कोर्ट से सर्प का अर्थ लेना ही अधिक संगत होगा। [बही, पृष्ट. १६७] किंतु 'सर्प का अर्थ' भी स्थिति को समझने में कहाँ तक साथ. देगा? वस्तुतः उसका भाव क्या ? डा० जीवन-निर्वाह गुप्त इसकी चिन्ता में नहीं पड़ते और आगे के प्रघट्टक में इसके बाद की स्थिति को समझाने में मग्न होते हैं। उनका विवेचन है- ३३. दरिन्द्र कुल में उत्पन्न होकर माता-पिता से शैशव-काल ही में चंचित होने के कारण हमारे कवि के लिए भिक्षा के अतिरिक्त जीवन- निर्वाह का कदाचित् और कोई साधन नहीं रहा । अपने जीवन के प्रभात ही में उसे इसलिए जीवन-संघर्प का सामना करना पड़ा । "विनय- पत्रिका' के ऊपर उद्धृत प्रथम पद में वह कहता है। उसे जब तक राम नाम का. अवलम्बन नहीं प्राप्त हुआ, :: "वह उदर के लिए लालायित फिरता रहा।