पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१५६

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तुलसी की जन्म-दशा १५१ नहीं किया जा सकता, किंतु तब तक कोई कारण नहीं कि इस पाठ को न ग्रहण कर अपेक्षाकृत इधर की प्रतियों का अन्य पाठ ग्रहण किया आए, और इस पाठ को ग्रहण करने पर 'स्वारथ के साचिन्ह' से इतर संबंधियों का मादाय लेना पड़ेगा। [वही, पृष्ठ १६७-८]] डा० गुप्त की शोध और भी आगे बढ़ती है और वहीं इस रूप में अंकित होती है- ३५. 'विनय-पत्रिका' के उपर्युक्त दूसरे छंद में वह कहता है। संतों ने मुझे दुखित देखकर कहा 'चिंता न करो' राम में उन पशुओं को भी नहीं भुलाया जो कि तुम से भी अधिक वृणित तथा पापी थे; यदि कोई उनकी शरण में जाता है तो राम उसकी सहायता उस समय तक करते हैं जब तक कि वह दुखों से मुक्त नहीं हो जाता है । और जैसे ही तुलसी ने राम का आश्रय लिया, वह सुखी हो गया। यद्यपि उसके हृदय में आराध्य के प्रति भक्ति और पूर्ण निर्भरता न थी। फलतः, कवि कदाचित् अपने प्रारंभिक जीवन से ही राम भक्ति में मन लगाने लगा था। इसी समय वह तत्कालीन रामभक्त संतों के संपर्क में भाया हुआ जान पढ़ता है, जिन्होंने उसे राम के तई अपने को समर्पित करने का उपदेश दिया। [वही, पृष्ठ १६८] अस्तु, अब तक इस प्रकार जो खंतियाया गया है उसका सार यह निकला कि- यह सर्वथा असंभव नहीं कि उपर्युक्त आत्मोल्लेखों में थोदा-सा अतिरंजन भी हो, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि कवि को अपने जीवन के प्रारंभ में ही माता-पिता से वंचित और अनाथ होने के कारण