पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१५८

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तुलसी की जन्म-दशा १५५ जी। त्रिपाठी जी ने भयो' के स्थान पर भयो' पाठ की उद्भावना ही नहीं की है। नहीं, उन्होंने तो साथ ही 'पाप' और 'परिताप' का क्रम भी बदल दिया है । अर्थात् मूल के : भयो परितापं पाप जननी जनक को आपने कर दिया है- पाप परिताप भयो जननी जनक को । जिससे 'पाप' का नाता जननी' तथा 'परिताप' का नाता 'जनक' से जुट गया है। इसके अतिरिक्त आपने 'वधावनो वजायो मुनि' की सर्वथा उपेक्षा कर दी है। जो किसी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता। इसी से कदाचित डा० माताप्रसाद गुप्त को उस पर इतना ध्यान देना पड़ा है। परन्तु क्या उनका पक्ष साधु है ? हमारी समझ में डा. गुप्त का मत निरा भ्रांत है । पहली वात तो डा० गुप्त की यह समझ में नहीं आती कि उन्होंने 'कुल मंगन' का अर्थ 'घर मंगन' कैसे समझ लिया और जायो कुल मंगन 'यदि ऐसा समझ ही लिया तो उसे 'दरिद्र' का मर्म भी कैसे मान लिया । 'मंगन' के पास पैसा भी होता ही है। कभी कभी तो दाता से भी कहीं अधिक । आज भी भिखारी दान करते सुने जाते हैं और कभी कभी तो धनिक' के रूप में 'व्यवहार' तक पहुँच जाते हैं । दूसरी यह कि यदि उक्त 'मंगन' दरिद्र ही थे तो उनके 'मान्य संबंधी' इतने धनी कैसे हो गए कि उनके 'बधावा' का मूल्य इतना अधिक हो गया कि उसे सुना नहीं कि वे 'परिताप पाप' में घिर गए । निश्चय ही यह तुलसी का अभिमत नहीं। उक्त पंक्ति का अर्थ नहीं । सूझ फिर चाहे जिसकी हो । 'बधावनो धजायो सुनि' का अर्थ 'वधावा सु आयो सुनि' करना कहाँ का न्याय है ? 'न