पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१६८

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तुलसी की जन्म-दशा १६५ सो सं० १५८३ के बारे में भूलना न होगा कि यही वह संवत् है जब वावर का सिका इस देश में चला और फलतः उसकी नीति हुई- अफगान काल में सुल्तान की शक्ति ईश्चर की दी हुई शक्ति नहीं, केवल एक मनुष्य की शक्ति मानी जाती थी। साम्राज्य के सरदार सुल्तान के कमजोर पड़ते ही मौका पाकर स्वतंत्र हो जाते थे। चावर सुल्तान के स्थान पर बादशाह की उपाधि धारण की जिसके पीछे सैनिक तथा राजकीय शक्ति के साथ धर्म द्वारा स्वीकृत ईश्वरीय शक्ति का भाव भी वर्तमान है। धीरे-धीरे इस भाव ने लोगों के दिलों में घर कर लिया जो वादशाह का सरोखा दर्शन करने लगे और उसे ईश्वर का प्रतिनिधि मान कर उसके प्रति भक्ति-भाव प्रदर्शित करने लगे। [भारत का इतिहास, भाग ३, पृ० २३ ] जो हो, हिन्दूपति महाराणा साँगा की हार को वावर ने अल्लाह की ट्रेन समझा और राजपूत-शिरों का स्तूप घना अपनी जीत का स्मारक खड़ा किया। सं० १५८४ के चैत्र मंदिर से मसजिद मास में यह विचित्र लीला जिस जाति को देखने को मिली उसी को कुछ समझाने के हेतु तो तुलसी का अवतार हुआ ! 'वनवा' की रणभूमि में वावर 'गाजी' बना तो उसका परिणाम शीघ्र ही अयोध्या में प्रकट हुआ। अपनी ओर से कहा क्या जाय ?. उसी का इतिहास साक्षी है कि 'जन्म-स्थान' की. 'घाबरी मसजिद' पर फारसी में लिखा है- (१) वफरमूद-ऐ-शाह बायर कि अदलश ; बनाईस्त, ता काखे : गर, मुलाकी । (२) विना कर्दे ई महवते . कुदसियाँ, निशां मीर चाकी। . अमारे सआदत