पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१७४

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तुलसी की जन्म-दशा लिया। अपने अविवेक के कारण हुमायूँ ने गुजरात-सुलतान की शक्ति को रोकने का स्वर्ण अवसर खो दिया । [ मध्यकालीन भारत का इतिहास, पृष्ठ १३०-१] आशा है, इतने ही से मुगल - रीति - नीति का बोध हो गया होगा । तुलसीदास का आविर्भाव यदि सं० १५८९ में हुआ तो उसके आस-पास की स्थिति यह थी। यह शेरशाह सन् १५३२ ई० तुलसीदास का साक्षात्कार करता है तो साथ ही शेरखाँ को भी शाही की ओर अग्रसर कर देता है। जिस चातुरी और कुशलता से उसने 'चुनार' और 'रोहतास' जैसे गढ़ों को अपना लिया उसी का परिणाम था कि आगे चलकर उसका सिका चला और विश्व ने देखा कि 'भारत' का 'अफगान' भी क्या कर सकता है। दूर जाने की बात नहीं। कहना उसी सत्यनारायण दूबे का यह हुमायूँ तथा शेरशाह-जिस समय शेरखाँ बंगाल तथा विहार में अपनी शक्ति बढ़ा रहा था, हुमायूँ गुजरात में फँसा हुआ था । अफगानों की नई शक्ति को रोकने के लिए वह शीघ्र ही गुजरात को छोड़ कर यंगाल की ओर यहा; किंतु सीधे यंगाल पहुँचने के बजाय चुनार के किले को जीतने में लग गया। तय तक शेरखाँ को धंगाल की राजधानी गौद जीत लेने का अवसर मिल गया और इसी बीच में उसने रोहतास के किले को भी चालाकी से हथिया लिया । जय हुमायूँ गौड़ की तो. यह गौड़ छोड़कर दूसरे रास्ते से बिहार आ पहुंचा और यनारस पर अधिकार करके जौनपुर को घेर लिया तथा कन्नौज तक का समस्त प्रदेश रौंद ढोला । इस परिस्थिति में हुमायूँ को गौड़ छोड़कर घापस आना पड़ा और अक्सर के पास चौसा के स्थान पर शेरखाँ और और घड़ा