पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१७५

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१७२ तुलसी की जीवन-भूमि उसकी फौजों में मुठभेड़ हुई। याद रखने की बात है कि मुसीबत के इस समय में भी हुमायूँ के भाइयों ने उसका साथ नहीं दिया । हुमायूँ हारा और भागकर आगरा आया । इस विजय ने शेरखाँ को कन्नौज से लेकर. आसाम तथा चटगाँव की पहाड़ियों तक समस्त प्रदेश का स्वामी बना दिया। दूसरे वर्ष हुमायूँ ने अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर शेरखाँ को रोकने का प्रयत्न किया किंतु कन्नौज के युद्ध में ( १५४० ई.) उसकी सेना तहस-नहस हो गई । वह स्वयं बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचा कर भाग सका । इस विजय ने शेरखाँ को उत्तरी भारत का सम्राट बना दिया और वावर के वंश की सत्ता भारत से कुछ समय के लिए लुप्त हो गई। [वही पृष्ठ, १३३-४] 'वावर के वंश की सत्ता के लोप का जो प्रभाव 'अवध' पर पड़ा उसका गुणगान तो मुसलिम कवि मलिक मुहम्मद जायसी भी अपनी 'पदमावत' में कर चुके हैं । उसके विषय में और कहा क्या जाय ? हाँ, यदि कहीं से इसका भी कुछ पता हो जाता कि उस समय 'जन्मस्थान' के अभिमानियों के हृदय में क्या आह्लाद उमड़ा था तो कदाचित् हमारा मार्ग अधिक प्रशस्त हो जाता । तो भी इसके अभाव में भी इतना तो सरलता से ही कहा जा सकता कि उसके उल्लास का ठिकाना नहीं रहा होगा । कारण यह कि 'शेरशाह नया नहीं, अपना पुराना परिचित शेरखां ही तो था जो कभी अपनी विमाता के कोप के कारण जौनपुर में आ पड़ा था और वहीं शिक्षित हो 'सासाराम' का जागीरदार वना था। उसकी खुली आँख और उदार अनुभव ने तो फिर ऐसा जौहर दिखाया कि उसके शासन के पाँच वर्ष मुसलिम शासन के ५०० वर्ष से कहीं अधिक संतोषप्रद सिद्ध हुए। 'महमूद' से लेकर उल्लास का उदय