पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१८२

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"तुलसी की जीवन यात्रा १७६ श्री वियोगी हरि जी इसकी टीका में लिखते हैं--- भावार्थ-मैं श्रीरामजी का गुलाम हूँ | गुरुरूप रामजी ने मेरा नाम रामबोला! रक्खा है। मेरी नौकरी क्या है ? यही कि दिन भर में कभी-न-कभी दो एक बार राम-राम ऐसा स्मरण कर लेता हूँ। जो अच्छी तरह रक्खेंगे तो सिर्फ रोटी और वस्त्र लूंगा (और कुछ नहीं चाहिए), यह तो हुई इस लोक की यात; अब परलोक की रही सो वेद कह रहे हैं कि ( राम नाम के प्रभाव' से) तेरा भला होगा, मुक्ति मिल जायगी । बस, इसी से मैं सदा प्रसन्न और निश्चिन्त रहता है। भाव यह कि राम जी की गुलामी करने और उनका नाम लेने से मेरे दोनों लोक सुधर जायेंगे, यह मुझे रद विश्वास हैं।। ।। पहले जड़ कर्मों ने मुझे अभिलाप रूपी: मनबूत बेड़ियों से कस लिया था। मुझे उस बंधन से ऐसा कट हुआ कि मैं सह न सका। दुखियों-अनाथों के नाथ कृपालु कोशलेश श्री रामचंद्र जी ने मुझे कर्मबंधन से छुड़ा लिया, क्योंकि उन्होंने मुझ दीन को पापों से जलता हुआ पाया ॥२॥जय उन्होंने मुझसे पूछा कि तू कौन है, तब मैंने कहा, हे नाथ ! मैं अनाथ हूँ, मेरा कोई कहीं नहीं है। मैं आपका गुलाम होना चाहता हूँ और आपके चरणों को इसी से पकड़ रहा हूँ। इस पर गुरुरूप राम जी ने मेरी पीठ ठोंकी, साहस बंधाया, और हाथ पकड़ कर मुझे अपना लिया। अपनी शरण में ले लिया। उस दिन से हरिभक्तों को सुख देनेवाला यह वैष्णव-बाना धारण किए रहता हूँ ॥ ३ ॥ मैं राम का गुलाम हो गया (वर्णाश्रम धर्म छोड़ कर सब वैष्णवों के साथ खाने-पीने लगा) यह देखकर लोग मुझे नीच कहने लगे। पर मुझे इसकी तनिक भी चिंता न हुई और न संकोच ही हुआ, क्योंकि न तो मुझे किसी के साथ व्याह या सगाई करनी थी और न मुझे जाति-पाति के ही झगड़ों से कुछ काम है। तुलसी का बनना-विगढ़ना तो राम जी के हाथ में है। यदि वह खुश रहेंगे तो मुझे सुख मिलेगा और नाराज हो जायेंगे तो