पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१८३

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१८० तुलसी की जीवन-भूमि दुःख पड़ेगा, पर मेरा प्रेम और विश्वास उनके चरणों में सदा एक सा वना रहेगा । इसी से मैं सदा सानंद रहता हूँ ॥ ४ ॥ 'भावार्थ' हो गया तो टिप्पणी को भी देख लीजिए । लिखते हैं- (१) इस पद में गोसाई जी ने, एक प्रकार से, अपनी राम- कहानी कही है। उन्होंने राम और गुरु में अभेद माना है। इसलिए कहीं राम और कहीं गुरु, इन दोनों ही शब्दों का प्रयोग किया है। कबीरदास जी ने तो गुरु को हरि से भी बड़ा माना है। लिखते हैं-

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागौं पाँय ।

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दिए बताय !! गुरु हैं बड़े गोविंद ते, मन में देखु विचार । हरि सुमरै सौ वार है, गुरु सुमिरै सो पार ।। (२.) 'लोग... चहत हौं-इसका पुष्टीकरण कवितावली रामायण के निम्नलिखित छन्दों से भली भाँति हो जाता है- "देवे को दोऊ। तथैव- भैरे जाति-पाँति न चहौं फाहू की जाति-पाँति, मेरे कोऊ काम को, न हौं काहू के काम को । लोक-परलोक रघुनाथ ही के हाथ सत्र, भारी है भरोसो तुलसी के एक नाम को। अति ही अयाने उपखानो नहिं बूझै लोग, .'साहेब को गोत गोत होत है गुलाम को ।' साधु कै, असाधु कै, भले के पोच, सोच कहा, का काहू के द्वार परयो, जो हौं सो हौं राम को । इन्हीं छन्दों के आधार पर, किसी-किसी के मत से, यह बात द्धिस ..... 'धूत कही