पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१९०

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3 तुलसी की जीवन-यात्रा १८७ फरि विनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै । बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ विदित गति सब की अहै | परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रान प्रिय सिय जानिधी । तुलसीस सील सनेह लखि निज किंफरी फरि मानिची ।। तुम्ह परिपूरन फाम जान सिरोमनि भाव प्रिय । जन गुन गाहक राम दोष दलन फस्नायतन ॥ ३३६ ॥ अस कहि रही चरन गहि रानी । प्रेम पंफ जनु गिरा समानी। मुनि सनेह सानी वर बानी । बहु विधि राम सासु सनमानी। [ रामचरितमानस, प्रथम सोपान ] 'सास' ने 'तुलसीस' कह कर 'राम' से क्या कहा ? यही संवोधन उनको क्यों रुचा ? समाधान की चिंता क्या ? तुलसी चताते हैं- सहसनाम मुनि-भनित सुनि, तुलसी-वल्लभ नाम | सकुचत हिय हँसि, निरखि सिय, धरमधुरंधर राम ॥१८॥ [दोहावली ] जी । तुलसी के 'धरमधुरंधर राम' की स्थिति यह है कि उन्हें सदा 'तुलसी' का कुछ विशेष ध्यान है। यहाँ तक कि इसी से तुलसीदास की भी प्रार्थना है- हनूमान है कृपालु, लाडिले लषन लाल, भावते भरत कीजै सेवक सहाय जू। निनती फरत दीन दूबरो दयावनो सो, निगरे ते आप ही सुधारि लीजै भाय जू। मेरी साहिविनि सदा सीस पर विलसति, देवि ! क्यों न दास को देखाइयत पाय जू ।