पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१९२

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तुलसी की जीवन-यात्रा १८६ विधि हरि हर मुनि सिद्ध सराहत, मुदित देव. दुदुभी दई। बारहिं वार सुमन बरषत, हिय.. हरपत पहि. जै जै गई। कौसिक सिला जनक संकट हरि भूगुपति की टारी टई । खग मृग सबर: निसाचर सबकी पूँजी बिनु बाढ़ी सई। जुग जुगः कोटि कोटि करतब करनी न कछू बरनी नई । राम-भजन-महिमा हुलसी. हिय तुलसी हू की वनि गई ।। ३७ ॥ [गीतावली, सुंदर अंतिम पंक्ति की पुकार पर ध्यान तो दीजिए। यदि "हुलसी' व्यक्ति है तो उसकी संगति ? कहते हैं- राम-भजन-महिमा हुलंसी-हिय। जिससे

तुलसी हू की वनि गई । -

भाव यह कि 'हुलसी के हृदय में राम-भजन का भाव क्या जगा, उसकी फटकार ही तुलसी की दीक्षा धन गई। तो फिर 'हुलसी' तिया क्यों नहीं ? कहना प्रियादास का है न-- तिया सों सनेह, विनु पूछे पिता गेह गई, भूली सुधि देह, भजे वाही ठौर आएं हैं। वधू अति लाज भई, रिसि सी निकसि गई, प्रीति राम नई, तन हाड़ चाम छाए हैं। सुनी जब बात, मानौ होइ गयौ प्रात, वह, पाछे पछितात, तजि, काशीपुरी धाए हैं । कियौ तहाँ वास प्रभु सेवा लै प्रकास कीनौ,

. लीनौ दृढ़ भाव नैन रूप के तिसाए हैं ।। ५०८ ॥

[ भक्तमाल, पृष्ठ ७५६ ] .