पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१९३

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तुलसी की जीवन-भूमि घटना कहाँ घटी का कुछ पता नहीं। अभी चटपट उसकी चिंता भी नहीं । हाँ, समझने की बात है कि तुलसीदास ने उक्त प्रसंग के पहले ही 'मानस' में लिखा है- अति वड़ि मोरि ढिठाई खोरी । सुनि अब नरफहुँ नाफ सँफोरी। समुझि सहम मोहि अपडर अपने । सो सुधि राम फीन्हि नहि सपने । सुनि अवलोकि सुचित चख चाही । भगति मोरि मति स्वामि सराही । कहत नसाइ होइ हिम नीकी । रीझत राम जानि जन जी की। रहति न प्रभु चित चूफ - किये की । करत सुरति सय वार हिए की। प्रश्न उठता है वह 'ढिठाई खोरी' क्या जिसका निर्देश इस प्रकार किया जा रहा है। क्या कहीं उसका संकेत है ? निवेदन है, ध्यान से पढ़ें। इसके आगे का वक्तव्य है- जेहि अघ बघेउ व्याध निमि बाली । फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली । सोइ फरवृति विभीपन केरी । सपनेहु सो न राम हियँ हेरी । ते . भरतहि. भेटत सनमानें | राजसभाँ रघुबीर बखाने । तो फिर यही चूक' हम तुलसी की भी क्यों न सममें ? इसी के आगे तो उनका यह भी निवेदन है- प्रभु तरु तर कपि ढार पर ते फिये आपु समान। तुलसी कहीं न राम से साहिब सीलनिधान ।। राम निकाई .रावरी है.सब ही को नीक । जौ यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीफ ॥ एहिं विधि निज गुन दोष कहि सबहिं बहुरि सिरु नाइ । वरनऊँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ ॥२९|| [रामचरितमानस, प्रथम सोपान] स्पष्ट और स्फुट है कि यहाँ 'बालि', 'सुकंठ' एवं 'विभीपन' में एक ही दोष का आरोप किया गया है जो है खी का भोग । कह लें पर-