पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१९४

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तुलसी की जीवन-यात्रा २६१ स्त्रीभोग । किन्तु 'बालि' का 'अघ' 'सुकंठ' में कहाँ ? इसी से कवि उसे कुचाल का नाम देता है और विभीषन के विषय में 'करतूति का प्रयोग कर जाता है। कवि स्वयं अपने को क्या समझता है ? दूर जाने की बात नहीं। कहना कवि'का यह जानि. पहिचानि 'मैं बिसारे हौं कृपानिधान एतों भान ढीठ हौं उलटं देते खोरि हौं। करत जतन जासों जोरिवे कों जोगी जन, तासों क्यों हू जुरी, सो अभागो बैठो तोरि हौं । मोसे दोस-कोस को भुवन-कोस दूसरों न, अपनी समुझि सूहिः भायों टकटोरि-हौं ।-:: गाड़ी के स्वान की नाई माया मोह:की बड़ाई, छिनहि: तलता छिन भजत बहोरि हौ ॥ बड़ो साँइद्रोही, बराबरी. मेरी. को कोऊ,. नाथ की सपथ किए कहत फरोरि हौं । दूरि कीजै द्वार ते लवार लालची प्रपंची; सुधा सो सलिल सूफरी ज्यों गहंडोरिहों ।। राखिए नीके सुधारि, नीच को डारिए मारि, दुहूँ ओर की बिचारिः अब न निहोरिहौं । तुलसी कही है साँची रेखः वार बार खाँची, "ढील किए नाम-महिमा की नाव बोरिहौं।।२५८॥ Eविनयपत्रिका इस 'साँची के प्रकाश में इतना तो प्रकट ही हो गया कि रामविमुख : तुलसी की मुख्य वेदना है- तासों क्यों हू:जुरी, सो अभागो वैठो तोरि हौं ! :,