पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१९५

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१६२ ! तुलसी की जीवन-भूमि अर्थात् राम का होकर भी फिर राम से विमुख हो जाना ही तुलसी का महान् 'अघ' है। रही 'कुचाल' और 'करतूति' । सो है 'सुग्रीव' और 'विभीपण' की भाँति शरण में आकर भी फिर 'तारा' और 'मंदोदरी से नया नाता जोड़ने के समान किसी नारी से संबंध स्थापित कर लेना। परिणय नहीं प्रणय के रूप में । किसी भी दशा में यह धर्म - विवाह की अपेक्षा काम-विवाह ही अधिक रहा होगा। अस्तु, अब तो स्यात् सरलता से कहा जा सकता है कि 'कवितावली' के- परयो लोफ रीति में पुनीत प्रीति राम राय मोहबस बैठो तोरि तरफ: तराफ हौं । का रहस्य यही है और कदाचित् यह भी कहने में कोई क्षति नहीं कि वस्तुतः इसी 'मोहिनी' का नाम है 'हुलसी' । स्मरण है न ? न हो तो कंठ कर लें तुलसीदास की यह घोपण- रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी ! तुलसिदास हित हिय हुलसी सी । 'हिय' इसलिए कि यह 'हृदय' का व्यापार है। बाहर की फटकार भीतर की आँख है और है साथ ही वियोग की दशा में मंगल की आशा ! परमयोग की साधना । प्रश्न उठता और उठ सकता है कि यह 'लोकरीति' की घटना जीवन में कब और कहाँ घटी। सो इसका भी कुछ विचार हो ले तो अच्छा। सोचने और समझने की बात है कि जो उक्त कवित्त में वहीं कहा गया है- तुलसी गोसाई भयो भोंडे दिन भूलि गयो ताको फल पावत निदान परिपाक हौं। उसका रहस्य क्या है । सो डा० गुप्त का यहाँ भी कहना है-