पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१९६

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तुलसी की जीवन-यात्रा १६३ ७५. कवि के नाम के साथ लगी हुई 'गोसाई' उपाधि की विवे- चना करना हमारे लिए आवश्यक होगा। प्रायः ऐसा विश्वास है कि एक महात्मा होने के कारण ही तुलसीदास को इस उपाधि द्वारा सम्मा- नित किया गया था, किंतु कभी न कभी कवि 'गोसाई' (माधीश) हुआ था। यह 'बाहुक' के कुछ छंदों से, जिनमें उसने अपने 'गोसाई' होने पर पश्चात्ताप प्रकट किया है, स्पष्ट हो जाता है। इन छंदों का संबंध उन फोड़ों से है जिनसे वह अपने जीवन के अंतिम काल में दुखित हुआ था। [ तुलसीदास, तृ० सं०, पृष्ठ १८९] डा० गुप्त अपने मत के प्रतिपादन में जिन छंदों को प्रमाण मानते हैं उनमें से एक तो उक्त 'बालपने' वाला प्रसिद्ध, उद्धृत छंद है और दूसरा है- असन बसन हीन विपम विपाद लीन देखि दीन दूवरो करै न हाय हाय को । तुलसी अनाथ सौं सनाथ रघुनाथ कियो दियो फल सीलसिंधु अपने सुभाय को। नीच यहि बीच पति पाइ भरआइ गो 'विहाय प्रभु भजन बचन मन काय को। तातें तनु पेपियत घोर वरतोर मिस टि फूटि निफसत लोन राम राय को ॥४१॥ उक्त छंदों में गोस्वामी जी का जो रूप आप को दिखाई देता है उसकी पुष्टि में लिखते हैं- ७६. प्रस्तुत लेखक एक 'तुलसीदास मठ का भी पता चलाने में सफल हुआ है, जिसकी स्थिति काशी में लोलार्क कुंड पर थी। यह मठ सं० १७९७ तक विधमान था, क्योंकि उसी वर्ष किसी जयकृष्ण दास