पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१९९

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१६६ तुलसी की जीवन-भूमि बामदेव, राम को सुभाव सील जानि जिय, नातो नेह जानियत रघुवीर भीर हौं। अविभूत, वेदन विषम होत, भूतनाथ ! तुलसी त्रिंकल पाहि पचत कुपीर हौं । मारिए तो अनायास कासीबास खास फल, ज्याइए तौ कृपा करि निरुज सरीर हौं ॥१६६।। [ कविता०, उचर] कहने का तात्पर्य यह कि 'कासीवास खास फल' के अभिलाषी तुलसीदास को किसी 'तुलसी मठ के कारण मठाधीश' समझ लेना ठीक नहीं और 'गोसाई' का अर्थ 'मठाधीश' कर देना तो और भी तुलसी-साहित्य के सर्वथा विपरीत है । 'मट' वो नहीं पर 'मठी' का प्रयोग है तुलसी के यहाँ इस अर्थ में- मूरति मनोहर चारि विरचि विरंचि परमारथ भई । अनुरूप भूपति जानि पूजन-जोग विधिं संकर दई ।। तिन्ह की छठी, मंजुलमठी, जग सरस जिन्ह की सरसई । किए नींद भामिनि जागरन, अमिरामिनी जामिनि भई ॥३||५|| [गीतावली, बालकांड] है कहीं इस 'मंजुल मठी' में कुत्सा की गंध भी ? हम तो नहीं समझते कि कभी तुलसीदास के यहाँ चेरा 'गोसाई" का कोई कुत्सित अर्थ भी है। जो हो, समझ लेने की बात यहाँ यह है कि तुलसी प्रत्यक्ष ही 'चरो राम राय को हैं। और कभी उन्होंने कहीं स्पष्ट ही कहा भी तो था- वूझ्यो ज्योंही कह्यो 'मैं हूँ चेरो है हौं रावरोजू, मेरों कोऊ कहूँ नाहि, चरन गहत हौं । [विनय०, ७६]