पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२००

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तुलसी की जीवन-यात्रा '१६७ तो फिर देखना चाहिए कि इस "रा का हुआ क्या ? सो ध्यान देने की बात है कि- अयोध्या 'प्रधानतः वैरागियों का घर है और हनुमान-गदी उनका हद दुर्ग हैं। गढ़ी के वैरागी निर्वाणी अखाड़े के हैं और चार पहियों में विभक्त हैं । साधारण पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी समझते हैं कि वैरागी लोग बड़े उद्दढ होते हैं और उनका एक उद्देश्य खाओ पिभो और मस्त रहो है, किन्तु बात ऐसी नहीं है । चेलों को पहिले बड़ी. सेवा और तपस्या करनी पड़ती है। उनका प्रवेश १६ वर्ष की अवस्था में होता है यद्यपि ब्राझंणों और राजपूतों के लिए यह बन्धन नहीं रहता। इन्हें और भी सुविधाएँ हैं । जैसे इन्हें नीच काम नहीं करना पड़ता। पहली अवस्था में चेले को.'छोरा' कहते और ३ वर्ष तक मन्दिर और भोजन के छोटे छोटे बर्तन धोने को मिलते हैं, लकड़ी लाना होता है. और पूजा- पाठ करना होता है। दूसरी अवस्था भी ३ वर्ष की होती है, और इसमें उसे बंदगीदार कहते हैं । इसमें उसे कुएँ से पानी लाना पड़ता है। बड़े बड़े बर्तन मांजने पड़ते हैं, भोजन बनाना पड़ता है, और पूजा भी करनी पड़ती है। इसकी इतने ही समय ३ वर्ष में तीसरी अवस्था आरंभ होती है जिसमें इसे 'हुड़दंगा' कहते हैं। इसमें इसे मूर्तियों को भोग लगाना पड़ता है, भोजन बाँटना पड़ता है जो दोपहर को मिलता है-पूजा करनी पड़ती है और निशान या मंदिर की पताका ले जानी पड़ती है। दसवें वर्ष में चेला उस अवस्था को पहुँच जाता है जिसे 'नागा' कहते हैं। इस समय वह अयोध्या छोड़कर अपने साथियों के साथ भारतवर्ष के समस्त तीर्थों और पुण्य स्थानों का परिभ्रमण करने जाता है । यहाँ मिक्षा ही उसकी जीविका रहती है। लौट कर वह पाँचवी अवस्था में प्रवेश करता है और 'मतीत' हो जाता है। [ अयोध्या का इतिहास, पृष्ठ ४६-७ ] .