पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२०२

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तुलसी की जीवन-यात्रा १६६ ज्यों ज्यों निकट भयो चहौं कृपाल त्यो त्यो दूरि पस्यो हौं । तुम चहुँ जुग रस एक राम हो हूँ रावरो जदपि अघ भवगुननि भयौ हौं । वीच पाइ नीच वीच ही छरनि छरयो हौं । हौं सुवरन कुबरन कियो, नृप तें भिखारि करि, सुमति ते कुमति करयो हौं । बगनित गिरि फानन फिरयों, विनु मागि नरयो हौ। चित्रकूट गएं लखि फलि की कुचाल सव, अब अपडरनि डरयो हौं । भाथ नाइ नाय सों कहौं हाय जोरि खरयो हौं । चीन्हों चोर निय मारिहै तुलसी सो कथा सुनि, प्रभु सौ गुदरि निबस्यो हौं ॥२६॥ [विनयपत्रिका ] गोस्वामी जी के इस आत्मकथन की व्याप्ति कहाँ तक है ? क्या इसके बीच पाइ नीच वीच ही छरनि छरयो हो की संगति 'हनुमानवाहक' के नीच यहि बीच पति पाइ भरुआइगो के साथ सटीक नहीं बैठ जाती ? कहा जा सकता है कि 'चित्रकूट' -संबंधी 'तुलसी' का एक दूसरा पद भी तो है ? कहते हैं- मेरो फह्यो सुनि पुनि भावे तोहि करि । चारिहूँ बिलोचन बिलोकु तू तिलोक महँ तेरो तिहुँ काल फहू को है हितु हरि सो॥ नए नए नेह अनुभए देह - गेह चसि परखे । प्रपंची प्रेम परत उघरि सो। सुहृद-समाज दगाबाजि ही को सौदा सूत जम जाको काज. तब मिले पाय परि सो।। विवुध सयाने पहिचाने कैयौं नाही नीके, देत एकगुन लेत फोटिगुन भरि सो। .