पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२०४

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तुलसी की जीवन-यात्रा २०१ लोचन रहे री होय। जान-बूश अफाज कीनों, गए भू में गोय ।। अविगत जु तेरी गति न जानी, रहो जागत सोय । सबै छत्रि की अवधि में है निकसि गे ढिग होय || परम-हीन में पाय हीरा, दियो पल में खोय । 'दास तुलसी राम बिटुरे, कही कैसी होय ॥ इसी प्रत्यक्ष दर्शन की ओर गोसाई जी का इस पद्य में, संकेत जान पड़ता है। [विनय-पत्रिका (सटीक ), पृष्ठ ४०४ ] इस 'प्रत्यक्ष दर्शन के स्वरूप में एकता भले ही न हो पर है यह एक प्रकार से अति प्रचलित मत । इसके अतिरिक्त इस 'दर्शन' का एक दूसरा भी रूप है। श्री रामनरेश त्रिपाठी जी लिखते हैं- एक दिन तुलसीदास चित्रफूट में रामघाट पर बैठे हुए राम के ध्यान में निमग्न थे। इतने में एक सुन्दर पुरुप ने आकर कहा-वाचा, चंदन दो । तुलसीदास चंदन घिसने लगे। उसी समय तुलसीदास को सूचना देने के लिए हनुमान जी ने सुग्गे का रूप धर कर आकाश से उड़ते हुए यह दोहा पढ़ा- चित्रकूट के घाट पर, भइ संतन फी भीर । तुलसिदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर !! यह सुनकर सुलसीदास रामचंद्र की शोमा देखने लगे और देखते- देखते आनंदमग्न होकर मूर्छित हो गए। रामचन्द्र स्वयं चंदन लगा कर अंतर्धान हो गए। [ तुलसीदास और उनकी कविता, पृष्ठ १४३-४ ] इसमें संदेह नहीं कि प्रथम 'प्रत्यक्ष दर्शन' का मेल तुलसी के इस कवित्त से प्रत्यक्ष है-