पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२१६

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तुलसी की जीवन-यात्रा. तुलसीदास की वेदना मुखर है और भावना दर्शनीय । तुलसी फिर भी अपनी आन पर कितने बढ़ हैं। माँग में कोई कमी नहीं। 'जगदंब' का अवलंब' अनिवार्य है। माता का सहारा नहीं तो पिता का प्रसाद कैसा ? सो तो ठीक, और इसमें भी संदेह नहीं कि काशी में भी तुलसी 'जानकी-रमन-जन' के रूप ही विद्यमान है। किंतु विचारणीय प्रश्न यह है कि फिर मरने के लिए काशी का वास क्यों ? क्या स्वयं 'रामधामदा पुरी की उपेक्षा तुलसी इस प्रकार स्वयं नहीं कर देते हैं ? परिस्थिति को देखते हुए 'नहीं' का नाम कौन ले सकता है ? किंतु कौन नहीं कह सकता कि तुलसी के इस विपाद का कुछ न कुछ रहस्य अवश्य है ? सो उन्हीं का कथन है यह भी- ज्ञान, वैराग्य, धन, धर्म, कैवल्य सुख, सुभग सौभाग्य शिव सानुकूल। तदपि नर मूढ़ आरूढ़ संसार-यथ भ्रमत विमुख-तव-पादमूलं ।। नष्टमति, दुष्ट अति, कटरत, खेदगत दासतुलसी शंभु आया। फामारि श्रीरामपद पंकजे भक्तिमनवरत गतभेदमाया ॥१०॥ [विनयपत्रिका] 'कप्टरत' और 'खेदगत' तुलसी के 'कष्ट' और 'खेद' का अंत कहाँ ? फलतः काशी में भी उन्हें कुछ भोगना पड़ा । विपाद की वाणी है- देव बड़े, दाता बड़े, संकर बड़े भोरे । किए दूर दुख सबनि के जिन जिन कर जोरे ॥ भव शरण देहि 1 यातना