२१४ तुलसी की जीवन-भूमि सेवा सुमिरन पूजियो, पात आखत थोरे । दियो जगत जाँ लगि सबै नुख गज रय घोरे ।। गाँव बसत, वामदेव, मैं फनहूँ न निहोरे । अधिभौतिफ बाधा भई, ते किंफर तोरे ।। वेगि बोलि, बलि, परनिए, फरवृति फटोरे। तुलसी दलि सँध्यो वह सठ साखि सिहोरे ।॥ ८॥ [विनयपत्रिका 'ते किंकर तोरे' पुकार कर कहता है कि 'बाधा' कहाँ से पहुँचाई जा रही है और तुलसी दलि सँघ्यो चहें सठ साखि सिहोरे से विदित ही है कि उनकी शठता किस निम्नकोटि की है। अन्यत्र भी तुलसीदास ने कहा है- देवसरि सेवा वामदेव गाउँ रावरे ही, नाम राम ही के माँगि उदर भरत हों, दीचे जोग तुलसी न लेत काहू को फाफा, लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हौं । एते पर हू जो फोऊ रावरोहै जोर पर, ताफो जोर, देवे दीन द्वारे गुदरत हौं । पाइकै उराहनो उराहनो न दीजे मोहिं, फाल-फला फासीनाथ कहे निवरत हों ।। १६५ ॥ [कवितावली, उत्तर०] हमारी समझ में इस 'काल-कला' के भीतर बहुत कुछ भरा है। इस कांड की भीतरी माया को समझे विना इस 'जोर' का रहस्य खोलना संभव नहीं । 'इतिहास' मूक हो पर 'काव्य' डंके की चोट पर पुकार कर कहता है कि इसके पीछे शासन का काल-कला