पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२१८

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3 तुलसी की जीवन-यात्रा २१५ हाथ है । सो सौभाग्य से पथ-प्रदर्शन को. भवानीदास यहाँ भी सामने आते हैं और "अथ 'दंडी प्रसंग' में इसका भेद बहुत कुछ अपनी शैली में खोल जाते हैं। देखिए कहते हैं- काशीपुरी विप्र. : .एक. रहै। फरि निज धर्म: फर्म निरबहै । बहुत काल ग्रह आश्रम धत्यौ । दंड करन पुनि वृति संभल्यौ । त्याग्यौ सुत वित नारि सनेहा । तीरथ अटन गयौ तनि गेहा । विपुल बरख एहि बिधि चलि गयौ । पतिनी मन अस विसमै भयो । अमित काल भये पति नहि आयौ । आयु बीति की काहु लोभायौ। है निरास. निरबाहु न देख्यौ । इंगिन के बस आपुहि लेख्यौ । तब विचार कीन्ही मन माहीं । इमि विभिचार किए भल नाहीं । ताते कहूँ ठाँव भव कीजै । अंत निबाहु होइ दुख छीजै । एक वैरागी वेप तह, तासो प्रीति डिठाइ । लोक लाज के कारने, तजि ग्रह चली दुराई ।। नारि पुरुप की प्रीति जसि, करि परिहरि निज ह । गई कतहु यह यो ठकै, प्रथम आचरन नेह ।। कछु दिन में दंडी तह आयौ, ग्रह गति सुनि लखि बहु दुख पायौ। वैरागी तिय जो लै गयौ, करै सोफ मनो हिय लै गयो । जौ नहि दंड करौं तिन केरो, तौ केहि काम जोग जप मेरो । तबै बली निज इष्ट पठायौ, पातसाह को पकरि मंगायौ। बड़ो तेज परताप जेहि, डिल्ली पति सुलतान । परबस देखौ आपु कहँ, मुख सुखान बिलखान || बोध कियौ तव साह को, दीन्हो यह उपदेस । कंठी माला को न अब, रहै जगत में लेस । बैंरागिन को दंड दै, . अरु. पुनि वेष उतारि । कंठी माला काढि निज, मंगवायो सरकारि ।।