पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२२३

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२२० तुलसी की जीवन-भूमि दूबरे को दूसरो न द्वार, राम दया-धाम ! रावरी ही गति बल - विमर - विहीन की। लागैगी पै लाज वा विराजमान विरुदहि, महाराज याजु जौ न देत दादिः दीन की ॥१७७॥ रामनाम मातृपितु, स्वामि समरथ हितु, आस रामनाम फी, भरोसो रामनाम को। प्रेम रामनाम ही सों, नेम रामनाम ही को, जानी न भरम पद दाहिनो न वाम को ।। स्वारथ सकल परमारथ · को रामनाम, रामनामहीन तुलसी न काहू काम को । राम की सपथ सरबस मेरे रामनाम, कामधेनु कामतरु मो से छीन छाम को ||२७८।। [कवितावली, उचर० ] रामनामी तुलसी का दृढ़ विश्वास तो देखिए कि रामनाम से उसका सब कुछ सब गया। मुगल-इतिहास उसको नहीं जानता, पर विश्व में कितने लोग हैं ऐसे जो उस विजय मुगल - इतिहास को जानते हैं? और 'तुलसी' ? उसकी कुछ न पूछिए, वह तो डंके की चोट पर कह गया है ललकार कर- जाति के, सुजाति के, कुजाति के, पेटागिनस, खाए एक सबके विदित वात दुनी सो। मानस वचन काय किए पाप सति भाय, राम को कहाय दास दगाबाज पुनी सो ॥ रामनाम को प्रभाउ, पाउ महिमा प्रताप, तुलसी से जग मनियत महामुनी सो । .