पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२२५

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२२२ तुलसी की जीवन-भूमि बनाय वाकी गांचन लगे। तादी समें अगनित बांदर उपद्रव करत पातिसाह की दृष्टि परे । तब पातसाह भयमानि इनि के पाइनि आंनि परि के छमा करवाइ सीख दई । चलती धेरै तुलसीदास जी मैं यह आग्या कीनी कि यहां श्रीराम जी के सेवक हनुमान को परकर आयो सो यह और उन की भई । तुम और ठौर जाय रहो। यहां तुम्हारे ही कुटुंब के बंदीवान है रहेंगे। यह सुनि पातिसाह नैं सलेमगढ छोड़ि दयो । सो अव तक भी पातिसाह फे कुटुंब के उहां कैद रहत हैं । सो जा पद को बनाय गाएते यह लीला भई सो वह यह पद- तुमहिं न ऐसी चाहिए हनुमान हठीले । साहिब सीताराम से तुम से जु वसीले । तुमरे देखत सिंघ के सिसु मैडुफ लीले । जानति हूँ कलि तेरेउ मनु गुन गन फीले । हाक सुनत दसकंघ के भए बंधन ढीले । सो चल गयो किधौ भए अब गरव गहीले ।। सेवक फो परदा फ? तुम समरथ सोले । “सासति तुलसीदास की सुंनि सुजस तुही ले ।। "तिहूँ फाल तिनको भलो जे रामरंगीले ॥ २ ॥ [नागरसमुच्चय, पृष्ठ २०२-३] 'नांगरीदास' की 'पदप्रसंगमाला' के इस 'पद' में आठवीं राजसमाज कड़ी छूट गई है, जो इस प्रकार है- अंधिफ आपु ते आपनो सुनि मान सही ले। [विनयपत्रिका, पद संख्या ३२] नागरीदास के कथन में कोई बात ऐसी नहीं जिसके कारण हम इस कथन को उपेक्षा की दृष्टि से देखें। हाँ, यदि चाहें तो इसे राजनीति का चक्र समझ लें । 'अनीराय 'घड़गूजर' जहाँगीर