पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२२८

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तुलसी की जीवन-यात्रा २२५ देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्धनाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं। पूतना पिसाची नातुधानी जातुधान वाम रामदूत की रजाइ माथे मानि लेत हैं। घोर जंत्र मंत्र कूट कपट कुजोग रोग, हनूमान आन सुनि छाँड़त निकेत हैं। क्रोध कीजै फर्म को, प्रबोध कीजै तुलसी को, सोध कीजै तिनको जो दोष दुख देत हैं ||३२|| [हनुमानवाहुका वस। इसी 'शोध' की पुकार के साथ 'तुलसी की जीवन- यात्रा समाप्त हुई। 'इति' का पता नहीं। ईति' में ही जिसका जीवन बीत गया उसके 'अथ' और 'इति' की पहेली कहाँ सुलमी ? 'जन्म-स्थान' विवाद का विषय बना तो बना रहे, पर तुलसी के निधन-स्थान में विवाद कब उठा ? उसका भस्म बना 'महाश्मशान' में तो संदेह क्या ? कौन नहीं जानता कि मरते-मरते भी वह कह रहा था- जीवौं जग जानकीजीवन को कहाय जन, मरिचे को बारानसी, चारि सुरसरि फो। तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाउँ, जाके जिए मुए सोच करिहै न लरिको । मोको झूठो साँचो लोग राम को फहत सब, मेरे मन मान है न हर को, न हरि को । भारी पीर दुसह सरीर ते विहाल होत, सोऊ रघुवीर विनु सकै दूरि करि को। ॥ ४२ ॥ [हनुमानवाहुफ] इति ।