पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२३७

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तुलसी की जीवन-भूमि कुछ और होती। मुंशी सीतल सिंह के विषय में यहीं इतना और जान लें कि जव महाराज उदितनारायण सिंह 'दुलहिन साहिवा" के वियोग में अत्यन्त दु:खित रहने लगे तब उनके हितैषियों ने- मुंशी सीतल सिंह की काविलियत की बहुत तारीफ की जो कि साविक में दफ्तर खास गवर्नमेंट में आला ओहदा पर थे और हफ्त कलम में और शाइरी में 'वेखुद' तखल्लुस करते ताकि उनकी काबिलियत व गुफ्तगू से दिल बहले। [तारीख बनारस, द्वि० भाग, पृ० ३४२ ] सं० १८७३ की यह घटना मुंशी सीतलसिंह के महत्त्व को प्रगट करती है । आप का देहावसान सं० १९१० में हुआ। आप अरबी-फारसी के पंडित थे। फलतः आप की फारसी समझने में यदि विलसन महोदय से भूल हुई हो तो आश्चर्य नहीं। स्थिति कुछ भी हो, इतना तो व्यक्त ही है कि उन्होंने 'कवितावली' को 'गुनावली' पढ़ा है, और तुलसीदास के गुरु का नाम दिया है जगन्नाथ दास । इस भ्रम का कारण कदाचित् यह है कि इस 'नरहरिदास' का चमत्कार देखा गया जगन्नाथ पुरी में ही । अच्छा तो विलसन महोदय की आलोचना से अलग हो देखना यह है कि उधर हम पहले कह चुके राजापुर पर कृपा हैं कि सं० १८८४ में राजापुर के भक्तराज छीतू ने अँगरेज को. समझाया था कि 'भक्त' की अवहेलना से लाभ नहीं। पते की बात तो यह है कि भक्तराज की भाषा में- भक्त कह्यो साहेब नहिं मरिहै, जो प्रतिपाल साधु को करिहै । [भक्तमाला, पृ० १०६७ ] सं० १८८४ के इस सत्संग का प्रभाव 'साहेब' पर जो पड़ा सो तो चंदे में प्रगट हो गया और 'राजापुर' में 'धनुषयज्ञ' का डौल