पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तुलसी की खोन २५९ अयोध्या मथुरा माया फाशी काञ्ची अवन्तिका । पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥ कहनेवाले कह सकते हैं कि छंद मैं अयोध्या का नाम पहिले आना उसके प्रधान का प्रमाण नहीं। परंतु यह ठीक नहीं। एक प्रसिद्ध इलोक और है जिससे प्रकट होता है कि अयोध्या तीर्थ रूपी विष्णु का मस्तक है- विष्णोः पादमवन्तिकां गुणवती मध्ये च काञ्चीपुरीम् नाभि द्वारवतीन्तथा च हृदये मायापुरीं पुण्यदाम् । ग्रीवामूलभुदाहरन्ति मथुरां नासाच वाराणसीम् एतद्वदाविदो वदन्ति मुनयोऽयोध्यापुरी मस्तकम् ।। [अयोध्या का इतिहास, पृष्ठ १-२] 'अयोध्यापुरी' को 'मस्तक' यों ही नहीं कहा गया है। इसका संबंध आस्तिक-नास्तिक, ब्रह्मण्य-अब्रह्माण्य सभी से तो है । देखिए न, श्री अवधवासी लाला सीताराम ही इसे भी स्पष्ट कर देते हैं। लिखते हैं- इन दिनों भी अयोध्या जैन, धर्मावलंथियों का ऐसा ही तीर्थ है पैसा हिंदुओं का. | अध्याय ८ में दिखाया जायगा कि २४ तीर्थंकरों में से २२ इक्ष्वाकुवंशी थे और उनमें से सब से पहिले तीर्थकर आदिनाथ (पभदेव जी ) का और चार और तीर्थकरों का जन्म यहीं हुआ था। [वही, पृष्ठ २] 'जन' की ममता 'अयोध्या' से फिर क्यों न बहुत गहरी होगी ? रहे बौद्ध, सो उनकी भी स्थिति वही है जो अन्य किसी हिंदू हृदय की। गौतम बुद्ध भी तो मूलतः बौद्ध भाव 'इक्ष्वाकु के ही वंशज थे? फिर उनके अनुयायी उनकी 'कुलराजधानी' की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? 'दतून कुंड' से राम का ही नहीं उनका भी जैन भावना