पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२७

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१० तुलसी की जीवन-भूमि ताही ते मोहि दिनि तर, नहिं आवत कोउ आन । और फछू देखत नहीं, जो देखे तो भान | [वही, पृष्ठ १२२-३ ] बादशाह मोंक में था। निदान हुआ यह कि पाँव पलोटने लगा और तुलसी का हाथ उठा तो- पाइकै सरीर धर्म वर्न एक भी फराल ! मेष जी फरे न तामु दुःख सो सहै विसाल । दिष्टि साह के परयो जो हाथ जोरि के विनीत । नाथ हो विनै करौं सो मान लीजिए सुनीत ॥ चैद एक एक ते बड़े गुनी फिरंगि आदि । नाथ जो निदेश होइ भाइ के हरै बियाधि ॥ न्याधि है न रोग है फही गोसांई बन घाइ। ही गुलाम राम के विमुख भये लहों सजाइ ।। [वही, पृष्ठ १२३] जहाँगीर के प्रसंग को अधिक बढ़ाने की आवश्यकता नहीं। कवि तिथि का नहीं भाव का भूखा और तयः नुक्ति समय का पारखी है। अतः एक ऐसा प्रसंग सामने आता है जिसके उपरांत कवि को और कुछ कहना शेप नहीं । लीजिए, वह प्रसंग है- विप्र एक हठ परो मोहि हरि दरस करावी । जा विधि हरि सो मिलो वेगि सोइ जोग बताचौ । बहु उपासना रीति कही प्रभु नेकु न मानो । कही आजु ही लयौ दरस सोइ जुगत बखानी। जन प्रति उत्तर बहुतै कियौ तबै विषै प्रभु इमि कह्यो । जयसूल भाल करि वृच्छ चढ़ि गिर जो तुरत चाहत लहौ। [वही, पृष्ठ १२९]