पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२९

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१२ तुलसी की जीवन-भूमि बरछी. गाड़ि भूमि महँ देहू । ता पर कुदहु तजि तनु नेहू । यहि विधि दरश होय तौ होई । और यतन कछु परै न जोई । वणिक कह्यो यह तौ न असति है। तुलसिदास कह सति सति सति है। वणिक गाड़ि बरछी महि माही ( चढ्यो जाय तरु कूदन काहीं । मरनं भीति कुद्यो नहिं जाई । बनिया वार बार पछताई। कोउ क्षत्री हि पंथ है, लख्यो तमाशो जाय | कह्यो वणिक सों फाह यह, वैश्य गयो सब गाय ॥ ३४ ॥ क्षत्री कलो उतरि तुम आवहु | कौन हेतु तनु वृथा गँवावहु । मो सों लेहु कछुक धन भाई । करहु जाय रोजगार बनाई। वणिक मानि क्षत्री के बयना । लै धन तुरत गयो निज अयना । क्षत्री लियो मनहिं अनुमानी । मृपा न तुलसिदास की बानी । तरु पर चढ़ि : कुद्यो बरछी पर ! उपरहि रोकि लियो तेहि रघुबर । बजे नगर दुंदुभी अपारा | भयो सुयश सिगरे संसारा। तामें प्रमाण गोसाई जी की । मैं लिखि देहौं सोई नीकी । कौनिहुँ सिद्धि कि बिन विश्वासा | बिन हरिभजन न भवभय नासा । [भक्तमाला, पृष्ठ ७६५-६ ] 'अनुश्रुति का आधार एक ही है पर घटना की स्थिति में भेद है। राजा रघुराज सिंह तो स्पष्ट ही 'नगर' का उल्लेख करते हैं- दिय कपीश द्विन पुत्र जियाई । सकल अवधपुर वजी बधाई । तुलसिदास अति आनंद पायो ! तहाँ वसत कछु काल बितायो । आयो एक वणिफ पुनि कोऊ । रामदरश लालस किय सोऊ । परंतु उक्त चरित्र'. में घटना स्थल का स्पष्ट उल्लेख नहीं । [वही, पृष्ठ ७९५ ] प्रसंग से वह 'हस्तिनापुर' की ओर का ठहरता है। जो हो, निवेदन यह करना था कि 'ब्राह्मण' का स्थान 'वणिक' को और