पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/४८

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वार्ता में तुलसीदास ३१ यहाँ तक कि स्वयं वल्लभ-कुल के भक्त नागरीदास को भी इसका पता नहीं । दूसरी ओर सभी इस घटना को साधु समझते और इसका श्रेय तुलसीदास को देते हैं। परन्तु एक विशेषता इधर यह देखने को मिली है कि 'सं० १६९७ की वार्ता में इस स्वरूप- परिवर्तन का कोई उल्लेख नहीं हुआ है । हाँ, उसमें इस घटना का नाम नहीं । इसको तो उसके संपादक 'संवत् १७५२ की लिखित हरिराय जी के भावप्रकाश वाली प्रति के माथे मढ़ते हैं। अतएव हम भी इस प्रसंग को यहीं छोड़ अभी देखना यह चाहते हैं कि सचमुच इसके अनुसार 'तुलसीदास' का 'घर-पार' ठहरता किस देश में है । सो नंददास का अति संक्षिप्त परिचय है- अव श्री गुसाई जी के सेवक नंददास सनोढिया ब्राह्मण (रामपुर में रहते.) तिनके पद (अष्टछाप में) गाइयत हैं, सो वे पूर्व में रहते, तिनकी वार्ता। [अष्टछाप, पृष्ठ ५२५] कोष्ट के भीतर के अंश 'भाव-प्रकाश' के हैं। अतः उनको छोड़ देने पर काम के रह गए परिचय के पूर्व का संकेत दो सूत्र । उनमें से पहला तो है सनोढिया ब्राह्मण' और दूसरा है 'पूर्व', इन्हीं को सामने रखकर कुछ आगे का हाल देखना है । सो वार्ताकार स्वयं कहते हैं- "सो एक दिन पूर्व को संग श्रीद्वारिका को श्री रणछोद जी के दर्शन को चलत हतो। [वही, पृष्ठ ५२६ ] प्रश्न उठता है कि 'पूर्व से यह 'संग' आ रहा था और मार्ग में टिक गया था अथवा 'पूर्व से जाने की अभी तैयारी कर रहा था। समाधान के लिए जो थोड़ा सा सूत्र हाथ लगा यह है- .