पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/५४

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३८ तुलसी की जीवन-भूमि उनके छत्र चंवर सिंहासन, भरत सत्रुहन लछमन जोर । इनकें :लकुट मुकुट पीतांवर, नित गायन सँगनंदकिसोर ॥ उन सागर में सिला तराई, इनराख्यौ गिरि नख की कोर । 'नंददास' प्रभु सब तजि.भजिए, जैसे निरखतिचंद चकोर ॥३७॥ [ अष्टछाप-परिचय, पृष्ठ ३२५ ] रही निष्ठा की बात । सो प्रत्यक्ष ही नंददास का निवेदन है- जो गिरि रुचै तो वसौ श्रीगोवर्धन, ग्राम रुचै तो वसौ नंदगाम । नगर रुचै तो बसौ श्री मधुपुरी, सोभा सागर अति अभिराम || सरिता रुचै तो बसौ श्री यमुना-तट, सकल मनोरथ पूरन काम | 'नंददास' काननहिं रुचे तौ, बसौ भूमि श्रृंदावन धाम || [वही, पृष्ठ ३२५ ] 'वार्ता' तथा 'सोरों-सामग्री' में तुलसीदास की जो गति धनी श्री मीतल का मत है और नंददास का उनमें जो सत्कार हुआ है उसकी मीमांसा में पड़ने से पहले ही जानने की बात यह है कि श्री प्रभुदयाल मीतल के कथनानुसार खोज में नंददास की निम्नलिखित रचना प्राप्त हुई है, जिसमें उन्होंने अपने ज्येष्ठ भ्राता के रूप में तुलसीदास की पद-वंदना की है- श्रीमतुलसीदास स्व गुरु भ्राता पद . बंदे । सेष सनातन विपुल ज्ञान जिन पाइ अनंदे ।। राम-चरित जिन कीन, तापत्रय कलि-मल हारी। करि पोथी पर सही, आदरेउ आप पुरारी ॥ राखी जिनकी टेक, मदनमोहन धनुधारी । वालमीकि अवतार कहत, जेहि संत प्रचारी॥ 'नंददास' के हृदय-नयन को खोलेउ सोई। उज्ज्वल रस टपकाय दियौ, जानत सब कोई ।।