पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/६१

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वार्ता में तुलसीदास ४५ फिर क्या था. इसी चिन्ता.में 'सगरी रात्रि व्यतीत भई और 'प्रातःकाल होते ही- सो देह-कृत्य करिके दंतधावन करिके, सेवा सुमिरन करिके वा क्षत्राणि के द्वार उपर जाइ बैठे, सो तीन पहर व्यतीत होइ' गए। 'तीन पहर तक उस पर किसी की दृष्टि न परी तो कोई बात नहीं। आसक्ति का यही तो सुख है ? पर अचरज की बात तो यह है कि उस 'लोंडी का ध्यान भी इधर नहीं गया जिसने कुछ ही समय उपरांत यह दृष्टान्त' सुनाया- जो-एक समें आधुन संगरे घर के मनुष्य श्री गोकुल में श्री गुसाई जी के दर्शन को गए हते, तब तुम संग हती। तब श्रीगोकुल ते श्रीगुसाई जी श्रीनाथजी द्वार पधारे हते। तब (मैं ) तुम (तुम्हरो ससुर) हम सव संग हते। सोचिए तो सही इस समय यह क्षत्राणी कितने वर्ष की थी। इस यात्रा में इसकी अवस्था जो मलेछानी. कुछ रही हो उसको दृष्टि में रखकर देखिए यह कि जेठ की तपतपाती प्यास में श्रीगुसाई जी की झारी के शीतल जल से जो, भलेखानी' जी उठी वह- आछो-आठो मेवा लेके श्रीगुसाई जी की घोदी के भागे आइ के धैठती । तब श्रीगुसाई जी सों वीनती करवाई, जो-यह मेवा भाप अंगीकार करवाइए। श्रीगुसांईजी ने 'थोरे दाम' के विना लेना स्वीकार न किया तो वह कुछ दाम लेकर देने पर राजी हो गई और सो यही भांति सों अपनो जन्म वितीत कीनो । सो वा मलेछानी के ऊपर श्रीगुसाई जी बहुत प्रसन्न रहते ।