पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/६३

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'वार्ता में तुलसीदास 86 तव श्रीगुसाई जी ने तुलसीदास को आग्या करी, जो-यह नंददास ती उत्तम पात्र हतो । सो यह पुष्टिमार्ग में आइ के प्रवृच भयो है। ताते याको व्यसन अवस्था कै रही है । तब श्रीगुसाई जी के . वचन सुनिके तुलसीदास बोहोत प्रसन्न भए । पाछे श्रीगुसांई जी से विदा होइ के अपने देश को गए। और नंददास ने हू फेरि तुलसीदास को नाम हून लियो। [अष्टछाप, पृष्ठ ५७६] सं० १६९७ की वार्ता यह है तो सं० १७५२ की यह- ता पाछे तुलसीदास ने श्रीगुसाई जी सों दंढवत करिके कहो-जो महाराज ! नंददास तो पहिले बढ़ो विपया हतो, सो अब तो याकों चड़ी अनन्य भक्ति भई है, ताको कारण कहा है ? तव श्रीगुसांई जी ने तुलसीदास सौ कयो जो-नंददास उत्तम पान हुते, याते पुष्टि-मार्ग में आइके प्रवृत्त भए। और अब व्यसन अवस्था याको सिद्ध भई है, सो अब वे हद भए हैं। तब श्रीगुसांई जी के श्रीमुख के वचन सुनिके तुलसीदास प्रसन्न होइ श्रीगुसांई जी को दंडवत् करिके पाछे आप विदा होइ काशी आए। [वही, पृष्ठ ५८०] किंतु काशी' आकर भी उक्त कृपा' से मुक्त नहीं हुए। कहा जाता है कि गोपाल मंदिर' की एक कोठरी तुलसी के इष्ट में वैठकर उन्होंने विनय-पत्रिका के कुछ पद रच, हो सकता है, किंतु तुलसी का हा वचन यह भी तो है- आगम वेद पुरान बखानत, मारग कोटिन बाहिं न जाने । जे मुनि ते पुनि आपुहि आपु को ईस कहावत सिद्ध सयाने ॥

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