पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/६४

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तुलसी की जीवन-भूमि धर्म सत्रै कलिकाल ग्रसे, जप जोग विराग लै जीव पराने । को करि सोच मरे; तुलसी, हम जानकीनाथ के हाय बिकाने ॥१०॥ [कवितावली, उत्तर०] विकने को तुलसीदास 'जानकीनाथ' के हाथ विक तो गया किंतु उनका साक्षात् दर्शन स्वयं नहीं कर सका। नहीं, यह सौभाग्य तो प्राप्त हुआ ऐसे अनुज श्री नंददास की कृपा से । 'वार्ता' का रंग तो देखिए । किस लाग की वानी है- जब तुलसीदास दर्शन करिके बाहर आए, तव नंददास श्रीगोकुल चले। तब तुलसीदास हू संग संग आए । तब आइके नन्ददास ने श्री गुसाई जी के दर्शन करि साष्टांग दंडवत करी, और तुलसीदास ने दंडवत करी नाहीं। पाछे नन्ददास को तुलसीदास ने कही जो-जैसे दर्शन कर तुमने वहां कराए वैसे ही यहाँ करावो । तव नंददास ने श्रीगुसाई जी सों विनती करी ये मेरे भाई तुलसीदास हैं, सो श्रीरामचन्द्र जी विना और को नहीं. नमे हैं। तब श्रीगुसाई जी ने कही जो-तुलसीदास जी ! बैठो। [ अष्टछाप, वार्ता पंचम, पृष्ट ४७९ ] तुलसीदास को श्री गुसाई जी के यहाँ जो इतना मंगल संमान मिल गया उसका कारण कुछ है ही। तुलसीदास भी तो इसी कुल का भ्रांत भक्त है न ? आगे की बात है- ता समै श्रीगुसाई जी के पांचमे पुत्र श्रीरघुनाथ जी वहाँ ठाढ़े हुते, और उन दिनन में श्रीरघुनाथ जी को विवाह भयो हतो। जब श्रीगुसांई जी ने कही जो-श्रीरामचंद्र जी ! तुम्हारे सेवक आए हैं, इनको दर्शन देवो । तव श्रीरघुनाथलाल जी ने तथा श्रीजानकी बहू जी